कंज्यूमर कार्नर
विज्ञापन की आंधी से बच के किधर जाओगे !
आपको 24 घंटे विज्ञापन दिखाए जाते है। आज ही का हिसाब लगाये तो अब तक टीवी ,और मोबाइल पर सड़क किनारे कितने विज्ञापन देखे होंगे।
अब वो दिन लौट कर नहीं आएंगे जब नानी, दादी, माँ अपने हाथो से पकवान बना कर त्यौहार मनाये जाते थे। या समय अनुसार खाने पीने की वस्तुएं मिल जाया करती थी रिवाज ही ऐसा था कि हलवाई से कितने ही पकवान घर घर ले जाया करते थे। किन्तु फिर आया बाज़ारीकरण की आंधी और आयीं बहुत सी कंपनी। रेडीमेड रेंज स्नैक फ़ूड की। फिर हमारी भूख देसी और बहुराष्ट्रीय खाद्य कम्पनी द्वारा आधुनिक 2 मिनट में ही नियंत्रित की जाने लगी ।
जैसे सुबह की चाय या कॉफी किसी न किसी बहुराष्ट्रीय ब्रांड की या कम्पनी की होगी। और सुबह का नाश्ता विशेषकर शहरो के मध्यम वर्ग परिवारों में किसी न किसी कम्पनी आधारित ब्रांड का ही होगा। इसी तरह लंच में भी घर की रसोई के अलावा और भी बहुत कुछ किसी न किसी ब्रांड का ही होगा। या ऑनलाइन घर बैठे या किसी कम्पनी के रेस्टोरेंट आदि में यही हाल रात्री भोजन डिनर का हो चला है।
विज्ञापनों द्वारा हमें और हमारी ज्ञानेन्द्रियों के साथ खेल कर के हमें और भूखा बनाया जा रहा है। तामझाम और तड़क भड़क वाले विज्ञापनों ने जिस प्रकार इंसान की सोच और विचारों पर निंयत्रण किया है, ऐसा नहीं हुआ। 2 घंटे की फिल्म में 45 मिनट के विज्ञापन टीवी पर देखना मज़बूरी हो गयी। शायद ही कोई देश हो भारत को छोड़ कर जिधर इतने विज्ञापन दिखाए जाते हों।
इन कथा कथित खाद्य कंपनियों के विज्ञापन करने के लालच और खुद के उत्पाद को ब्रांड बनाने की होड़ किस स्तर तक गिर सकती है। उसका उदाहरण आप न्यूज़ चेनलो द्वारा दिखाई खबरों और खबरों की गंभीरता और उस बीच में आ रहे विज्ञापनों द्वारा लगाए जा सकते है।
इतना ही नहीं सोशल मीडिया के पोस्ट और वीडियो के साथ बच्चो द्वारा खेले जाने वाले मोबाइल गेम और यहाँ तक की पोर्न साईट पर भी आपको किसी न किसी खाद्य उत्पादक के विज्ञापन या ऑनलाइन खाना डिलीवर करने वाली कम्पनी के विज्ञापन देखने जबरन देखने को मिल जाते होंगे। तथा इन विज्ञापनों द्वारा देखने और सुनने के अनुभवों को प्रभावित करके आपकी भूख को बढ़ाया जाता है।
देश में खाने संबधी रोग युवाओ और बच्चो में तेजी से फ़ैल रहे है। बच्चे फलो और घरेलू भोजन से ही परहेज करने लगे है। जिसका भविष्य उनके माता पिता को पता रहता है। फिर भी “देखा जायेगा” वाली मानसिकता के चलते खुद के और बच्चो के स्वास्थ्य के साथ अपने ही हाथो से खिलवाड़ करने को मजबूर अभिभावक खुद भी विज्ञापनों के जाल से नहीं बच पाते है।
मुंबई की हाई कोर्ट में दो दिन पहले ही जैन समाज के तीन ट्रस्टों द्वारा प्रोसेस मीट के विज्ञापनों के विरुद्ध लगाई गई जनहित याचिका ख़ारिज कर दी गई। जो संवैधानिक रूप से सही भी है। लेकिन
जैसे बच्चों के कार्टून या बच्चों के लिए दिखाई दिए जाने वाले कार्यक्रमों में गर्भ निरोधक सामग्री का विज्ञापन दिखाया नहीं जा सकता । लेकिन भारत में ये सब भी हो रहा है। महिलाओं के सीरियल हो या कोई आध्यात्मिक कार्यक्रम या हिन्दू देवी देवताओ के धारावाहिक इन सब के बीच में एडल्ट विज्ञापन तथा कथा कथित प्रोसेस मीट के विज्ञापन धड्ड्ले से दिखाए जा रहे है।
आजाद भारत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लिए भारतीय नागरिक को टेलीविजन और सोशल मिडिया द्वारा मानसिक गुलाम बनाने के प्रयास पर कानून अभी नहीं बने है। उसी का फायदा उठा कर हमारे दिमाग के साथ खेल खेले जा रहे है। जिस पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो भारतीय नागरिको को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते है।