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विज्ञापन का मायाजाल

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किसी ने कहा है कि  एक झूठ को सौ बार बोला जाये तो वो सच लगने लगता है। लेकिन एक झूठ को बार बार लगातार हर दिन बोला जाये तो वो सच ही बन जाता है।
कुछ इसी सिद्धांत पर हमारे टी वी ,रेडियो ,समाचार ,पत्र ,वेबसाइट ,और मोबाइल की ढेरो ऐप्प विज्ञापनों से भरी पड़ी है। विज्ञापनों के माध्यम बदलते रहे हे लेकिन नीयत
हमेशा अपने उत्पाद की आक्रामक मार्केटिंग के प्रचार और प्रसार की  रही  है। आज के युग में  विज्ञापन विज्ञापित वस्तु को अपनी श्रेणी में सर्वोत्तम बताने के आडम्बर युक्त  प्रयास को कहते है।
विज्ञापन में भी विज्ञान के साथ साथ  मनोविज्ञान का जबरदस्त उपयोग होता है। सबसे ज्यादा लोकप्रिय सिद्धांत है की जहां लोगों की नजर हो वहाँ पर येन केन प्रकरेण नजर आओ।
जितना हो सके उतना नजर आए ताकि ज्यादा से ज्यादा स्वीकारिता हो जाये। प्रथम विश्व युद्ध के बाद मनोविज्ञानिको ने कई मनोवैज्ञानिक तथ्यों का पता लगाया जिनका इस्तमाल भीड़
को नियंत्रित करने और भीड़ को प्रेरित के लिए किया जाना था। ऐसा नहीं है की इसकी शुरुवात विश्व युद्ध के बाद हुई मानव विकास और बाजारों के विकास के साथ साथ विज्ञापनो का अपना एक स्थान है।
आज के दौर में विज्ञापन इंडस्ट्री चरम पर जरूर है किन्तु उसके अपनाये गए पुराने पड़  चुके हैं। उसकी  सारी  रणनीति  और  सारे मनोवैज्ञानिक अस्त्र जनता पर इस्तेमाल हो चुके है जिनसे जनता भ्रमित होती थी।
टीवी और समाचार पर दिखाए विज्ञापनों का असर अब कम हो गया है इसलिए आज के विज्ञापन में बच्चो को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। और विज्ञापनों के असल दर्शक भी अब छोटे बच्चे और नाबालिग बच्चे ही रह गए है।
फ़ूडमेन के इस स्तम्भ में ये समझने की कोशिश करेंगे की कैसे विज्ञापनो ने हमारा जीवन बदला और विज्ञापनों ने  कैसे हमारे अवचेतन मस्तिष्क पर हावी होने के लिए कौन   से मनोवैज्ञानिक
 और कौन सी तकनीक का उपयोग किया गया। तथा भविष्य में होने वाले  विज्ञापन के माध्यम  और  तरीकों  के बारे में भी आपको अवगत करवाएंगे और  इतिहास के उन विज्ञापनों के बारे में भी
चर्चा करेंगे जी झूठ के सबसे उच्चतम स्तर तक पहुंचे।

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