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विज्ञापनों से भारतीय संस्कृति और प्राचीन विज्ञान का नुकसान

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करीब पांच दशक पहले हमारे देश में राख और कोयले का हर घर में उपयोग हुवा करता था। धीरे धीरे केरोसिन स्टोव व एलपीजी गैस के आने के बाद से हर घर में चूल्हा और राख व कोयला गायब ही हो गए। जबकि पांच दशक पहले तक दांतुन व बर्तन धोने और हाथ धोने के लिए राख का उपयोग होता था। यहाँ तक की घर के मंदिर या सार्वजानिक मंदिरो के हवन कुंड की राख को प्रसाद के रूप में थोड़ी मात्रा में खाया भी जाता था। छोटे मोटे दर्द या बुखार में भी मंदिर के हवं कुंड की राख का उपयोग किया जाता था।

गौर करने वाली बात ये की शुरुवाती पेरासिटामोल भी चारकोल से ही बनायीं जाती थी। कोयले को लेकर सबसे पहले कोलगेट ने अपनी मुहिम शुरू की थी। आज भी कुछ बुजुर्गों को याद होगा की शुरुआत रेडियो और टीवी पर कोलगेट अपने टूथ पाउडर बेचने के लिए कोयले से दांतों को होने वाले नुकसान का हवाला दिया गया था। और आज कोलगेट खुद एक्टिवेटेड चारकोल के साथ अपना टूथपेस्ट चारकोल के गुणों को दर्शाते हुये बेच रही है। आज चारकोल फेस वॉश ,चारकोल साबुन ,व कुछ पशु संबंधी दवाओं में भी चारकोल यानी कोयले का उपयोग किया जा रहा है। राख को लेकर पतंजलि की डिश वाश बार भी बाजार में उपलब्ध है।

आज के दौर में चूल्हा शहरों से तो गायब हो चुका है। कुछ ग्रामीण या गरीब परिवारों को छोड़ कर सभी के पास एलपीजी गैस है। एलपीजी गैस को भी यही बोल कर लाया गया की ये हानिकारक धुवा नहीं देती जबकि सच्चाई ये है की एलपीजी गैस चूल्हे में दिखने वाला धुँवा नहीं होता लेकिन न दिखाई देने वाली अन्य गैसे जरूर होती है।जिनका शरीर पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।


आज चूल्हा जरूर गायब हो चुका है। लेकिन होटल और ढाबों पर चूल्हे की रोटी की मांग में कोई कमी नजर नहीं आती है। साथ ही कोयले के कई उत्पाद अच्छे खासे दामों पर बाजार में उपलब्ध है।बाजारवाद और विज्ञापन में हमेशा से किसी का नुकसान बता कर अपना माल बेचने की ही कला है। जिसका सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय संस्कृति व प्राचीन विज्ञान को हुवा है

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