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झाग का आकर्षण। 

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स्वछता के साथ झाग को जोड़ कर क्या हमें हमारे परम्परागत उत्पादों से दूर करने की साजिश है। 

भारत के खान पान में पिछले 70 वर्षो पहले झाग लेकर एक अलग मानसिकता थी। ज्यादातर झाग उत्पन्न वस्तुओ को जहरीला या ख़राब ही समझा जाता था।

खान पान व अन्य वस्तुओं में झाग को लेकर कोई विशेष  रुचि नहीं थी। 1952 के बाद झाग को हर लिहाज से शुद्धता और सफाई का प्रतीक  बनाने की मानसिकता की मार्केटिंग शुरू हो गई। कपड़े धोने के साबुन के झाग से नहाने के साबुन के झाग से बाजार में झाग की मानसिकता बाजारीकरण होने लगा। 

 कपड़े और तन के साथ दांतों की  सफाई में भी झाग को उतार दिया गया था। और तब से अब तक झाग से प्रेम या एक आकर्षण के चलते बिना झाग के कई वस्तुओं की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

बालो धोने के उत्पादों  में बाजार में जब हेयर कंडीशनर बाजार में उतारा गया तो जनता के एक बड़े तबके ने हेअर कडीशनर को नकार दिया। जिसका मुख्य कारण झाँग नहीं बनना था। क्योंकी उपभोक्ताओं को बाल धोने के  प्रसाधनों में व  शेम्पू में झाग देखने की आदत थी।

तब बालो के लिए उत्पाद बनाने वाली कम्पनियो ने शेम्पू और कंडीशनर के बीच में  फर्क बताने और जताने की कैम्पेनिंग करनी पड़ी थी। आज भी सोडा व कोला सोडा ,और बीयर में गैस या झाग न बने तो उसे ख़राब या पुराना और उपभोग के लायक नहीं समझा जाता है। 

झाग के इसी प्रेम ने कई दन्त पाउडर बनाने वाली कंपनियों के उत्पाद बाजार से सदा के लिए चलन से बाहर कर दिए।

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अब तो रेडीमेड झाग उत्पन्न करने वाली तकनीक के चलते शेविंग क्रीम और फेस वॉश पहले से ही झागदार उत्पादों के साथ बाजार में उपलब्ध है।  और खाने पीने के भी झाग को बाजार में एक खास जगह मिली हुई है। झाग किसी भी द्रव्य के सतही तनाव के किसी भी वजह से टूटने और द्रव्य के अणुओ के पुनः जुड़ने की क्रिया में बीच में फंसी हवा के कारण दिखाई देते है। जो की स्थिर नहीं होते।

झाग प्राकृतिक रूप से पानी की सतह पर बुलबुलो के रूप में दिखाई देते है। जो की प्राकृतिक रूप से पानी में घुलनशील तत्वों के कारण बनते है।

  प्रदुषण और उधोगो द्वारा अंधाधुंध रसायन पानी के  स्त्रोतों में छोड़ने के कारण भी झाग उत्पन्न होते है। 2018 में बेंगलुरु की वर्तुर झील में उत्पन्न झाग के समाचार प्रमुखता से दिखाये  गए थे। जो की झील में हो रहे प्रदूषण के कारण बने थे। बाजारवाद ने झाग को लेकर आम जनमानस में ऐसी मानसिकता उत्पन्न कर दी है की इंसान स्वतः ही प्राकृतिक संसाधनों से दूर हो चला है।

बाजार में उपलब्ध 99 प्रतिशत स्वच्छता के प्रसाधन झागदार है। और झाग के लिए खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल होता है। बरहाल स्वच्छता प्रसाधन में नाम मात्र ही कम या खतरनाक रसायन मुक्त उपलब्ध है।आप कल्पना भी नहीं कर सकते अगर आपका साबुन या टूथपेस्ट आप उपयोग में ले और उसमे झाग ना बने। तो हम में से ही 90 प्रतिशत लोग ऐसे उत्पाद को उपयोग करने से नकार देंगे।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा रचित इस झाग प्रेम के लिए दशकों तक टीवी रेडियो पर विज्ञापन दिखा कर व सुना कर हमारे अवचेतन मस्तिष्क में उत्पादों के साथ झाग का होना अनिवार्य रूप से घोषित किया जा चूका है।

बहुत से बुजुर्ग आज भी जानते है की उनके बचपन में दांतों के लिए दातुन व कपडे धोने और नहाने के प्राकृतिक उत्पादों पर ही निर्भरता हुवा करती थी। दांतो के लिए जिस दातुन का उपयोग होता था वो क्षेत्र के अनुसार अलग अलग रहती थी। लेकिन दांतों की बीमारियां उतनी नहीं थी जितनी आज 24 घंटे सुरक्षा का दावा करने वाले टूथपेस्ट उपयोग के बावजूद भी रहती है।   

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 झाग का प्रेम या आकर्षण बाजारवाद और रसायन विज्ञान का मानव जीवन में  मानसिक गुलामी का जीता जागता उदाहरण है।

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