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खाद्य नासमझी का बढ़ावा -Dumbing Down of Food ( भाग-2 )
आपने देखा होगा की हर वीडियो या इंटरनेट पर सर्फिंग करते करते अचानक किसी खाद्य डिलीवरी एप्प का विज्ञापन वांछित या अनिवार्य रूप से दिखाया जाता है। जिससे हो आपकी उस उत्पाद के लिए कोई चाह न भी आये लेकिन कुछ खाने की इच्छा जरूर हो जाती है। मनुष्य के लिए दो या तीन समय का खाना अब हर समय कुछ न कुछ चबाना व चबाने इच्छा को बढ़ाया जा रहा है। कभी इसे छोटी छोटी भूख या कही भी कुछ मीठा हो जाये आदी विज्ञापनों से जोड़ कर देखा जा सकता है। बच्चे इनके प्रमुख लक्षित शिकार होते है।बच्चो के दिमाग की कल्पनाओ को बहुत ही नाटकीय रूप से अपने उत्पाद की बिक्री के लिए उपयोग किया जा रहा है है। आजकल बच्चे कितने समझदार हो गए जैसे टैग लाइन के साथ टूथपेस्ट बेचे जा रहे है जिनमे बच्चो को ही पेस्ट की खुबिया बताते देखा जा सकता है।
जैसा की पिछले लेख में बताया गया की वैश्विक स्तर पर खाद्य अज्ञानता (Dumbing Down of Food ) को बड़े औधोगिक घरानो द्वारा कई दशकों से बढ़ावा दिया जा रहा है। जो की WTO और वैश्विक समझौते Treaty के नाम से हर देश में किये जा रहे है। बड़े उधोगो के केमिकल से बने कीटनाशक पहले से ही प्रत्यक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य और सोचने को प्रभावित किये हुवे है। अप्रत्यक्ष रूप से हमारे खाने पीने में इन गैरजरूरी तत्वों को मिला कर हमारी भोजन की समझ और भोजन के लिए मानव शरीर की सहजता से खिलवाड़ किया जा रहा है।
इन बड़े वैश्विक घरानो से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खाद्य वैज्ञानिको से स्वाद सम्बन्धी फ्लेवर सम्बधी और रूप रंग सम्बन्धी सारे प्रयोग और किसी को भी भोजन की लत लगाने के संभावित प्रयोग करवा चुके अब तो इनका उपयोग किया जा रहा है।
वास्तविक स्थिति ये है की खाने को लेकर हमें और हमारी समझ को जानबूझ कर कमजोर कर दिया गया है।हमारी ज्ञानेन्द्रियो को हमारे ही विरुद्ध काम में लिया जा रहा है रंग स्वाद व फ्लेवर विज्ञान और देखने की समझ को हमें विवेकहीन कर दिया जा चूका है। आज हम किसी भी उत्पाद के रंग को लेकर स्वाद और फ्लेवर को लेकर इतने आदी हो चुके है कि सही भोजन और शरीर के अनुसार भोजन करना भूल ही गए है।ऐसे में अगर इन उत्पादों से गंभीर या जीवनशैली रोग भी हो जाये लेकिन लत ऐसी की इनको छोड़ ही नहीं पाते। कई अध्ययन और रिसर्च रिपोर्ट ने आज के प्रोसेस फ़ूड से बच्चो में शरीर के साथ साथ मानसिक रूप से भी नुकसान की पुष्टि की है।लेकिन खाने से नुकसान की समझ पर ही पत्थर रख दिए गए है
आज भी भारत के आदिवासी या गाँवो में जहां इन कथा कथित वैश्विक घरानो के उत्पादों के विज्ञापन या उत्पाद नहीं पहुंच पाये है। वहाँ स्वास्थ्य की स्थिति शहरो से बेहतर है।