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बढ़ते जा रहे इटियोलॉजिकल फैक्टर्स।-डॉ कौशलेंद्र मिश्र(रि.आयुष डॉक्टर)

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गढ़े जा रहें है नये  इटियोलॉजिकल फ़ैक्टर्स। 

क्या होता है  इटियोलॉजिकल फ़ैक्टर्स। 

इटियोलॉजिकल फ़ैक्टर्स आम आदमी में बढ़ता यूरिया के जहर का प्रभाव ।  

  क्या आप विषाक्त किये जा रहे खाद्य-पेय पदार्थों के उद्योग, अनियंत्रित व्याधियों और औषधि एवं चिकित्सा उद्योग के बीच स्थापित हो चुके सहजीविता के सिद्धांत को समझ पा रहे हैं? 

चिकित्सकों और चिकित्सावैज्ञानिकों को पता है कि रोगों के इटियोलॉजिकल फ़ैक्टर्स में वृद्धि होती जा रही है, दूसरी ओर आइएट्रोयोजेनिक फ़ैक्टर्स से बचाव के लिए तो डॉक्टर्स ने ध्यान देना ही बंद कर दिया है । ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटीबायटिक्स और विटामिंस का अंधाधुंध प्रयोग हमारी रोगप्रतिरोध क्षमता को क्षति पहुँचा रहे हैं और हम ड्रग-रजिस्टेंस के सहज शिकार होते जा रहे हैं । मानवीय हस्तक्षेप ने जेनेटिकली मोडीफ़ाइड वायरस और वायरस के चुनौतीपूर्ण नए स्ट्रेन्स के एक संसार की रचना कर डाली है । इटियोलॉजिकल फ़ैक्टर्स शोध एवं शैक्षिक कार्यशालाओं तक सीमित हो चुकीं ये सारी स्थितियाँ हमारे सामने एक भयावह परिदृश्य निर्मित करने के लिए पर्याप्त हैं ।     

जो लोग जागरूक और संयमी हैं उन्होंने अपनी जीवनशैली को यथा सम्भव स्वास्थ्यकर बनाने का प्रयास किया है, इसके बाद भी उनमें से कई लोग जीवनशैलीजन्य व्याधियों से पीड़ित हो जाते हैं । हम सबके सामने यह एक बहुत बड़ी चुनौती है । मैं मधुमेह-2, स्थूलता, फैटी लिवर, हृदयरोग, कैंसर, एलर्जी, जेनेटिक सिन्ड्रोम और नपुंसकता/इनफ़र्टीलिटी जैसी कई समस्याओं के संदर्भ में यह बात कह रहा हूँ । 

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हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें दैनिक खाद्य-पेय पदार्थों के लिये भी क्रूर और निरंकुश बाजार पर निर्भर रहना होता है । यह हमारी अनएवॉयडेबल विवशता है जिसे एवॉयडेबल बनाना हमारे अस्तित्व के लिए एक अत्यावश्यक चुनौती है ।

बाजार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पूरी तरह सुरक्षित हो, खाद्यपदार्थों को विषाक्त बनाने की होड़ सी मची हुयी है । शासनतंत्र भी अपंग है इसलिए अब हम सबको ही यह सुनिश्चित करना होगा कि लड़ना किससे है- व्याधियों से या उन कारणों से जो व्याधियों के जनक हैं?

“मैंने बढ़ते जा रहे इटियोलॉजिकल और आइएट्रोयोजेनिक फ़ैक्टर्स के विरुद्ध लड़ाई करने पर विचार किया है । यदि हम इतना ही सुनिश्चित कर लेते हैं तो हमारे सामने एक मार्ग खुल जाता है । कम से कम शाक-भाजियों और कुछ फलों के लिए एक निजी गृहवाटिका हमारी अनिवार्य आवश्यकता होनी चाहिये ।”-डॉ कमलेंद्र मिश्रा

क्या हम होटल्स के भोजन और बाजार के फास्ट-फूड से मुक्ति के प्रयास नहीं कर सकते?

गाँव के लोगों को तो शाक-भाजी के लिए बाजार पर से अपनी निर्भरता यथासम्भव समाप्त कर ही देनी चाहिये, वे कर सकते हैं । सेवानिवृत्त हो चुके लोगों के लिए अपने पैतृक गाँवों में लौट जाने से अच्छा और क्या हो सकता है !

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डॉक्टर रमेश चंद्र मिश्र मुम्बई से गाँव की ओर लौटने के बारे में गम्भीर हैं । इथोपिया  को अलविदा करने के बाद डॉक्टर संजय गोयल ने भारत में मिलावटी खाद्य-पेय पदार्थों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है और वे ग्वालियर में हाइजेनिक फ़ूड बनाने और परोसने के लिए होटल, ढाबा और खोमचे वालों को प्रशिक्षित कर रहे हैं ।

भारत की जड़ों को पोषित-संवर्धित कर रही  हरियाणा की एक किशोरी वर्षा ग्रामीण जीवनशैली की ओर लोगों को अपने यू-ट्यूब पर प्रेरित कर रही है । यह सब हमें एक अच्छे भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है… किंतु इतना ही पर्याप्त नहीं है, हमें यह सब वृहदस्तर पर करना होगा ।

फ़ूडमेन हमेशा से अपने पाठको को यही समझाने में समर्पित है। की कैसे हमारे खाने को ही जहर में बदला जा रहा है। और हम बीमार और कमजोर रहे। ताकी मेडिकल इंडस्ट्री चलती रहे और फ़ूड इंडस्ट्री भी एक कुचक्र में आम आदमी को फसाये रखने का अंतरास्ट्रीय षड्यंत्र पिछले कई दशकों से जारी है।हमारे देश में  कुछ मंत्रियो और अधिकारियो की मिलीभक्ति के चलते ही ऐसा हो रहा है। और हम जहरीले खानपान के लिए मजबूर है।  ऐसे में एक सयुक्त चेतना और प्रयास ही हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को इस कुचक्र से निकाल सकता है।  

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