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वनवासी संस्कृति ही इंसानी भविष्य का आधार होगी !

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अतिथि संपादक कौशल किशोर मिश्रा (आयुर्वेदिक चिकित्सक )

जीवन के सात दशक देख चुके लोग बताते हैं कि रोटी और चावल में साठ साल पहले वाला स्वाद नहीं रहा, सब्जियां नीरस हैं और फल विषाक्त होते जा रहे हैं । दुर्भाग्य यह है कि फिर भी कोई वैज्ञानिक या चिंतक यह सोचने के लिये तैयार नहीं है। या फिर उनको मजबूर किया जा रहा है की वो स्वतंत्र रूप से अपने विचार और चिंताए व्यक्त कर सके। बहुराष्ट्रीय विष वितरक कम्पनीज सरकारों को भर्मित कर या विभागीय मंत्रियो को खरीद कर अपने द्वारा उत्पादित विष को हमारे खेतो में डलवा रही है। ये वही कम्पनीज है जिन्होंने दोनों विश्वयुद्धो में असला बारूद और जहर की सप्लाई करके करोडो लोगो को मौत के घाट उतारने में सहयोग किया था। और आज भी अपनी कमाई के लिए करोडो लोगो के लिए विष तैयार करती है।
 भारत में ‘अधिक अन्न उपजाओ’ के अभियान के साथ हम पिछले लगभग छह दशकों से अन्न और फलों के उत्पादों को बढ़ाने मे लगे हुये हैं । इस लक्ष्य की ओर भागते समय हमने अन्न और फलों की प्रकृति और गुणवत्ता की धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैं, परिणामस्वरूप हम इण्डोक्राइनल डिस-ऑर्डर्स जैसे रोगों को आमंत्रित करते जा रहे हैं । फ़ैक्ट्रीज़ में उत्पन्न किये बीजों से उगायी फसलों के बीजों को जानबूझ कर  ऐसा बनाया जाता है की उनसे उत्पन्न बीज उपजाऊ नहीं होते  इसलिये किसान को हर बार फ़ैक्ट्री से ही बीज ख़रीदने की बाध्यता होती है । क्या वैज्ञानिकों की बुद्धि में यह प्रश्न नहीं उठना चाहिये कि जो बीज अपनी अगली फसल के लिये अनुर्वरक हो जाते है।  उन बीजों को खाने वाली यह पीढ़ी वंशपरम्परा के लिये अपनी फ़र्टीलिटी की रक्षा कैसे कर सकेगी ?  कहा भी जाता है “जैसा खाओगे अन्न वैसा ही होगा तन और मन “
हम लहरी बाई जैसे प्रकृति पूजक  की वैज्ञानिक अवधारणा और श्रम के ऋणी हैं । मध्यप्रदेश की बैगा वनवासी लहरी बाई मोटे अनाज  के बीजों के संरक्षण और प्रसारण का पुण्य वैज्ञानिक कार्य पिछले कई वर्षों से कर रही हैं जिसके कारण उन्हें यूनेस्को द्वारा श्रीअन्न का ब्राण्ड अम्बेसडर बनाया गया है ।
यहाँ विचारणीय बात यह है कि वैज्ञानिकगण देशी बीजों पर अनुसंधान कर उनकी प्रकृति को विकृत करने में लगे हुए हैं जबकि लहरी बाई प्राचीन पद्धति से बेवर खेती करके मोटे  अनाज के  150 से अधिक प्रजातियों का संरक्षण कर चुकी हैं । जहाँ हम सीमेंट के पीछे भागते चले जा रहे हैं वहीं बीजों की उर्वरता बनाये रखने के लिये लहरी बाई मिट्टी के बने कोठलों का उपयोग करती हैं ।
मैं बारबार कहता रहा हूँ, जब भी कभी वर्तमान सभ्यता समाप्त होगी और नयी सभ्यता का विकास होगा तो उसके अंकुर वनवासी संस्कृति से ही प्रस्फुटित होंगे इसलिये वनवासी संस्कृति को बनाये रखना मानव समाज की सर्वाधिक वैज्ञानिक आवधारणा और आवश्यकता है ।

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