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खाद्य संप्रभुता :अभी  मीलों है चलना। 

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खाद्य संप्रभुता को कॉरपोरेट के हाथों जाने की आशंका ?

क्या है खाद्य संप्रभुता 

खाद्य संप्रभुता एक खाद्य प्रणाली है जिसमें भोजन का उत्पादन, वितरण और उपभोग करने वाले लोग ही खाद्य उत्पादन  और वितरण  के तंत्र और नीतियों को नियंत्रित करते हैं । खाद्य संप्रभुता का विचार  वर्तमान कॉर्पोरेट व्यवस्था  के विपरीत है। जिसमें निगम और बाजार संस्थान खाद्य प्रणाली  को नियंत्रित करते हैं । खाद्य संप्रभुता स्थानीय खाद्य अर्थव्यवस्थाओं स्थानीय खाद्य  उपलब्धता और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त खाद्य पदार्थों और प्रथाओं पर जोर देती है।

हालिया वर्षो में ही संयुक्त राष्ट्र सहित  सहित कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा खाद्य संप्रभुता को  संबोधित किया गया है, जिसमें कई देशों ने खाद्य संप्रभुता नीतियों को कानूनी जामा भी पहना दिया गया है । खाद्य संप्रभुता का जन्म खाद्य सुरक्षा  के  प्रचारकों के मोहभंग के जवाब में किया जाने वाली एक जवाबी कार्यवाही है। जो की  खाद्य प्रबंधन  और खाद्य नीतियों और  पर्याप्त पोषण आम लोगों तक की पहुंच पर जोर देता है।  जो किसी के अपने देश से या वैश्विक आयात से भोजन द्वारा प्रदान किया जा सकता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद  दक्षता और बढ़ी हुई उत्पादकता के नाम पर, इसने “कॉर्पोरेट खाद्य व्यवस्था” को बढ़ावा देने के लिए काम किया है।  विशेष उत्पादन, भूमि एकाग्रता  और व्यापार उदारीकरण   के आधार पर बड़े पैमाने पर औद्योगिक कॉर्पोरेट खेती व खाद्य विपणन व्यवस्था वैश्विक खाद्य उद्योग घरानों के नाम कर दी गई। जिसका खामियाजा आज तक सम्पूर्ण विश्व के गरीब और कुपोषित लोगों में देखा जा सकता है। गरीबी और अमीरी की खाई का आकार सुरसा के मुँह की तरह चौड़ा ही होता जा रहा है।

क्या है इसका इतिहास 

वैश्विक रूप से “खाद्य संप्रभुता” 1996 में एक अंतरराष्ट्रीय किसान संगठन लॉ वाया केम्पेसिना के द्वारा पुनः प्रकाश में लाया गया था और बाद में विश्व बैंक द्वारा भी इसको समझने की कोशिश की खानापूर्ति की गई। ला विया कैम्पेसिना किसानों के बीजो और उर्वरक के अधिकार ,कृषि रक्षण व नवीनता व  मान्यता के लिए अभियान चलाती है  संयुक्त राष्ट्र सहित कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा अपनाया गया था ।

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  • 2007 में, नायलिन की घोषणा ” ने एक परिभाषा प्रदान की जिसे 80 देशों द्वारा अपनाया गया था।
  • 2011 में इसे यूरोप के देशों द्वारा और परिष्कृत किया गया था। 2020 तक, कम से कम सात देशों ने अपने संविधानों और कानूनों में खाद्य संप्रभुता को एकीकृत किया था।
  • सितंबर 2008 में, इक्वाडोर  अपने संविधान में खाद्य संप्रभुता को शामिल करने वाला पहला देश बन गया। 2008 के अंत तक, एक कानून मसौदा चरणों में है, जो जीन प्रौद्योगिकी( GMO ) द्वारा विकसित बीजो और जीवों  पर प्रतिबंध लगाने तथा  कई क्षेत्रों को गैर-नवीकरणीय संसाधनों के निष्कर्षण से बचाने और एकाकी व्यापार  को हतोत्साहित करने के लिए इसे  संवैधानिक प्रावधान पर विस्तार करने का विचार यूरोपियन राजनीति में विचाराधीन है ।
  • 2021 में, संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग ने स्वदेशी खाद्य संप्रभुता पहल शुरू की। यह पहल कनाडा के समान “पारंपरिक भोजन के तरीकों को बढ़ावा देने” के लिए डिज़ाइन की गई है, यूएसडीए कार्यक्रमों ने ऐतिहासिक रूप से स्वदेशी खाद्य मार्गों और आहारों को शामिल नहीं किया है। यूएसडीए ( USDA ) ने पहले से ही स्वदेशी जनजातियों की सेवा करने वाले संगठनों के साथ भागीदारी की है।

विडम्बना है की भारत जैसे देश जहा पर सदियों से खाद्य संप्रभुता रही है।  यह व्यवस्था  अंग्रेजो के ज़माने  तक भी रही लेकिन आजादी के बाद भी खाद्य संप्रभुता इस देश में नहीं हो सकी । जिसका कारण आजादी के बाद की तत्कालीन परिस्थिति तथा अनुकूल स्थितियों में भ्रष्टाचार और मंत्रियों अधिकारियो और व्यापारियों की मिलीभगत  रही है।

अब ऐसे देश  में ऐसे विचारों को मीडिया और राजनीति द्वारा कुचला जाता रहा है। तीन काले कानूनों के विरुद्ध हुए किसान आंदोलन को तमाशा बना कर आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की गई।  देश की खाद्य संप्रभुता के विरुद्ध देश के ही बड़े कार्पोरेट घरानो की सच्चाई समझने के लिए काफी है।

वो दिन दूर नहीं जब खाद्य व्यापर सम्पूर्ण रूप से  कॉर्पोरेट घरानो के हाथ में आ जायेंगे। तब भारत की जनता को आटे दाल का भाव किलो में नहीं अपितु ग्रामो में याद दिलाये जायेंगे। भारत जैसे देश में ब्रिटिश राज में उत्पन्न हुई गरीबी आज आजादी के 70 साल बाद भी बरक़रार है। सरकारी नीतियों और अफसरशाही के चलते आज देश में 81 करोड़ लोग सरकरी 5 किलो अनाज पर निर्भर है। 

फ़ूडमेन की भी एक कोशिश है की जनता खाद्य संप्रभुता और किसानो की समस्या पर ध्यान दे।ताकि किसान किसानी ही न छोड़ दे। विकास के नाम पर कही कृषि लायक जमीने भेंट न चढ़ जाये। या उत्पादन के नाम पर GMO फैसले ही हमारा भविष्य बन जाये।  इसके लिए फ़ूडमेंन द्वारा अपनी कोशिशे जारी है। आज भले ही किसानों की समस्या आम आदमी को अपनी नहीं लगे लेकिन अंतिम भुगतान आम आदमी को ही करना होगा।

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