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फ़ूड सेफ्टी का गटर जब उफान मारे
देश भर में आपको ऐसी खबरे बहुत मिल जाएँगी जहां पर किसी मुखबिर की सूचना पर नकली पनीर ,नकली घी या नकली मसाले जीरा ,मिर्च या धनिया पावडर बनाने की फेक्ट्रियो पर पुलिस का छापा पड़ता है। एक बार सोचने से ऐसा लगता है की खाद्य विभाग की लापरवाही या मिली भगत वजह से ये सब कुछ चल रहा होगा। लेकिन हकीकत ये हे की मिलावटखोरो पर नकेल या सेटिंग में कमी पेशी व्यापारी की तरफ से होती है या मासिक बंदी में अपडेट नहीं होता तब खाद्य विभाग के अधिकारियो का एक पैंतरा मात्र ही छापे की शक्ल के रूप में बाहर आता है।
मिलावटखोर मात्र कमाई के कुछ हिस्से को खाद्य सुरक्षा अधिकारी या जिम्मेदार अधिकारी की जेब गर्म करके अपना व्यापार चला रहे हैं । और ये सब कुछ जनता के सामने है। ये जनता की समझ है वो कुछ समझते हुए भी अनदेखा कर देती है। क्योंकि ऐसी समझ उत्पन्न की गई है और जनता भी मान कर ही बैठ गई है कि सौ या हजार रु के धोखे की लड़ाई कौन लड़े। क्यों की उसे लगता है कि इससे क्या हो जायेगा।
हाल की ही घटनाओ पर गौर करे तो जयपुर के ड्राई फ्रूट मार्किट में स्थानीय पुलिस द्वारा छापेमारी में नकली पिस्ते का भांडाफोड़ हुया । लेकिन चौंका देने वाली बात थी कि त था कथित व्यापारी पिछले 12 वर्षो से मूंगफली को टेक्सटाईल फैक्ट्री में उपयोग होने वाले हरे रंग से पिस्ते बना कर बेच रहा था और किसी को पता नहीं चला वो भी 12 वर्षो से।
फिर ऐसा क्या हुआ कौन मुखबिर पुलिस के पास पहुंचा और कार्यवाही हुई। और गजब का तालमेल देखिये सम्बंधित थाना में किसी भी प्रकार की प्राथमिकी या शिकायत दर्ज नहीं हुई है। खबर एक बार के लिए हिला देने वाली थी। लेकिन असल में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। ये छापा मारने वाले भी जानते थे और छापे की कार्यवाही को दिशा निर्देश देने वाले भी। लेकिन बहस और फॉरवर्डिंग के लिए कइयों को आधार मिल गया। क्या ये जनता के विवेक पर प्रश्न नहीं कि जनता को किसी ने मूंगफली पिस्ता बता कर बेच दी और वो भी जहर बुझी। क्या वाकई में जनता की समझदारी नासमझी में बदल गई है ?
भारत मिलावटी खाद्य प्रदार्थो का गढ़ है। एशिया में चीन के बाद सबसे ज्यादा मिलावट के घिनोने स्तर पर भारत का नाम ही आता है। जिसकी वजह ग्राहकों में जानकारी का अभाव और ” देखा जायेगा ” की मूल मानसिक प्रवृति है। जिसका पोषण टीवी के चमक दमक वाले विज्ञापन व फिल्मों में दिखाई जाने वाली लग्जरी जीवन दिखा कर किया जाता है। समझ की समझ में नासमझी को कुछ ऐसे पोषित किया है। नकली असली के खेल में नकली बाजी मार ले जाता है।
लेकिन फर्क किसे पड़ता है। फर्क उस दिन पड़ता है जब आप की मेडिकल जाँच की रिपोर्ट किसी विशेष जीवन शैली की वजह से होने वाली बीमारी के लिए का आगाज हो जाता है। तब तमाम तरह की खान पान में खुद के और अपनों के लगाए प्रतिबंधों में जीना पड़ता है। और खास तरह की दवाये बिना मन के लेनी पड़ती है।