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क्या हम विषाक्त परिवेश में जीने के लिए बाध्य हैं: पढ़ाई लिखाई भी काम नहीं आ रही

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खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित खाद्य की सुनिश्चितता

मिलावटी सीमेंट, मिलावटी सोना-चाँदी, मिलावटी भोजन, मिलावटी दूध, मिलावटी औषधियाँ, मिलावटी विचार, मिलावटी व्यवस्था, मिलावटी संविधान, मिलीजुली सरकार… यह कौन है जिसने मिलावट को हमारे जीवन और उद्योग का इतना महत्वपूर्ण भाग बना दिया है!
अशिक्षित किसान को रसायनविज्ञान से क्या लेना-देना, वह तो अपनी फसलों में वह सब कुछ डालता है, और डालता रहेगा जो रसायनशास्त्र के वैज्ञानिक नहीं डालने के लिए उपदेश देते हैं। सब्जियों और फलों में रासायनिक दवाइयों वाले इंजेक्शन कौन लगाता है?
बड़े-बड़े वैज्ञानिक वैसा नहीं कर पाते जैसा वे करना चाहते हैं बल्कि वैसा करते हैं जैसा उनके आसपास रहने वाले अ-वैज्ञानिक लोग कहते और करते हैं। हाइजिन के प्रोफ़ेसर का स्वच्छता का सारा ज्ञान धरा रह जाता है जब उसे वही दूध पीना पड़ता है जिसमें दूधवाले ने तालाब का अशुद्ध पानी मिलाया हुआ है और वही मिठायी खानी पड़ती है जिसे मिठायीवाला अन-हाइजेनिक तरीके से रखता और बेचता है। किसी डायटीशियन की सारी पढ़ायी धरी रह जाती है जब उसे विवाह समारोह में वही भोजन स्वीकार करना पड़ता है जो किसी के लिए स्वास्थ्यप्रद नहीं बल्कि हानिकारक होता है।

और तो और अपने घर में भी विद्वानों को उसी तरह रहना और जीना पड़ता है जैसा कि उनकी पत्नी जी सोचती और व्यवस्था करती हैं। ज्ञान और अज्ञान की इस सहयात्रा में हमने तो ज्ञान को ही प्रायः पराजित होते हुए देखा है। तिरोहित तो प्रकाश को ही होना पड़ता, अंधकार तो प्रकाश के प्रकट होने से पहले भी था, और प्रकाश के तिरोहित हो जाने पर भी रहेगा।

अकबर निरक्षर था किंतु राज्य के विद्वान लोग भी उसके आगे सिर झुका कर उसकी आज्ञा का पालन किया करते थे। हमें अपने आप से पूछना होगा कि शिक्षित, चिंतक और वैज्ञानिक होने का हमारे जीवन में क्या औचित्य है? हमारे कई मंत्री अशिक्षित हैं किंतु बड़े-बड़े वैज्ञानिक और उच्चशिक्षा प्राप्त ब्यूरोक्रेट्स उनके आगे-पीछे घूमते रहते हैं और वही करने के लिए बाध्य होते हैं जो मंत्री जी चाहते और निर्णय करते हैं। इसे लोग निर्लज्जतापूर्वक लोकतंत्र का सौंदर्य कह दिया करते हैं परंतु सरस्वती को दासी और बंदिनी बना देने वाली व्यवस्था से मानवसभ्यता बारम्बार शिक्षा के अपरिणामगामी होने पर अपनी चिंता व्यक्त करती है और पूछती है कि उच्चशिक्षा में व्यय किए गये धन का क्या उपयोग? सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व के निर्णयों का अधिकार किसके पास होना चाहिये?

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हम अपने परिवेश में बहुत कुछ अवैज्ञानिक, अतार्किक और अकल्याणकारी घटनाओं को होता हुआ देखते हैं और बाध्य होते हैं उसी में स्वयं को भी सम्मिलित कर लेने के लिए। पुस्तकीय ज्ञान, शोधकार्य, विद्वता, वैज्ञानिकता कुछ भी फलदायी सिद्ध नहीं हो पा रही है। हम सब एक समान विषाक्त परिवेश में जीने के लिए बाध्य हैं, हमारी शिक्षा का औचित्य क्या है?

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