सम्पादकीय

अमूल दूध के कर्नाटक में प्रवेश पर विवाद बढ़ा

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बाहरी और घरेलू के बीच दूध कोआपरेटिव कंपनीयां लड़ रहीं कॉर्पोरेट की तरह

अमूल दूध के कर्नाटक में प्रवेश पर विवाद बढ़ा
कर्णाटक में अमूल के प्रवेश को लेकर राजनैतिक सरगर्मिया तेज हो गयी है अभी हाल ही में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने इसे स्थानीय भाषा और बाहरी के नाम पर अमूल के प्रवेश को अलग ही राजनैतिक रूप देने की कोशिश की है। अमूल चूँकि गुजरात मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन का ही ब्रांड है।और नन्दनी कर्नाटक मिल्क फेडरेशन का ब्रांड है। तो स्पष्ट है की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए इसे स्थानीय व भाषायी रंग दे कर विपक्ष सहानुभूति की राजनीति कर रहा है।और इसको इसी साल 10 मई को होने वाले चुनावो में मुद्दा बनाने की कोशिश होगी।

विवाद गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान के बाद से शुरू हुआ जिसमें अमूल को नन्दनी मिल्क ( कर्नाटक मिल्क फेडरेशन ) को साझेदार के रूप में स्थापित करने की बात कही थी। हालांकि ऐसा ही असम चुनाव के समय भी गृहमंत्री अमित शाह ने अमूल को असम में स्थापित करने को भी कहा था। लेकिन अभी तक कोई नीति या निर्देश केंद्रीय भाजपा सरकार ने नहीं बनायी ।
विपक्ष का आरोप है की ये कर्नाटक मिल्क फेडरेशन के अधिग्रहण जैसा है। जिससे धीरे धीरे नंदनी ब्रांड के स्थान पर अमूल को स्थापित करने का एजेंडा है। इस मुद्दे में स्थानीय भाषा को खूब भुनाया गया है।
स्थानीय भाषाओ व सरल व समझ में आने वाली भाषाओ का पैकेज फ़ूड पर होना की मांग को लेकर फ़ूडमेन ने हमेशा समर्थन किया है। व भविष्य में भी करता रहेगा। देखना ये होगा की क्या केंद्र सरकार के अमूल को कर्णाटक में उतारने की रणनीति चुनाव में उनके लिए लाभ या हानी का विषय ना बन जाये

आजादी के बाद हर किसी को अपना व्यापार करने व फ़ैलाने का अधिकार सविधान देता है। इसी अधिकार के तहत अमूल को भी कोई प्रदेश या राज्य व्यापार बढ़ाने से रोक नहीं सकता है।
लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार का सामने आना सरकार और अमूल की नियत को लेकर शंका पैदा करता है।
हालाँकि ये भी देखा जाना चाहिये की दशकों से चल रहे सहकारी व्यवस्थाओ में राजनैतिक और माफिया जैसे लोग अपने पांव पसार कर जमे हुये है। अब दो प्रदेशो के सहकारी व्यावसायिक टकराव से देखना होगा कि कइयों के जमे जमाये पीढ़ियों का धंधा और पशुपालको के शोषण में कमी आयेगी।
वैसे तो अमूल ने ख़ामोशी से दूसरे राज्यों की कोआपरेटिव कंपनियों के व्यापार को निगल ही लिया है और फ्री इकॉनमी में प्राइवेट प्लेयर्स अपनी रणनीति ही बदल कर कुछ तो अमूल के सहभागी हो गए और कुछ ने जो ठीक लगा वो किया।

गौर करने वाली बात ये भी है की एक किलो नन्दनी दूध की कीमत अमूल दूध से कम है। ऐसे में अमूल के दूध के क्या भाव होंगे व उसके कर्नाटका के भाव से दिल्ली में दूध के भावो पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ये सब निकट भविष्य में देखने को मिलेगा।
विपक्ष द्वारा इस मुद्दे को चुनावी ,भाषाई व बाहरी का बताया जा रहा है। जो की संविधान की मुक्त व्यापार के ही कानून की अवहेलना है। और यह इस बात का सबूत है की किस तरह से राजनीति दूध के व्यापार को प्रभावित करती है। किस तरह से भाव बढ़ाये जाते है या चुनावी समय में स्थिर कर दिए जाते है। और किस तरह से नकली दूध को जनता को चिपका दिया जाता है।
दूध माफिया राजनीतिक छत्रछाया में कैसे सरकारी तंत्र और खाद्य सुरक्षा के साथ खेला करते है। यह आपको कर्नाटक में अमूल के प्रवेश और चुनावी साल में दूध बाजार के मुद्दे को बाहरी और भाषाई मुद्दा कैसे बनाया जाता है देखने को मिलेगा।

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