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खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित खाद्य की सुनिश्चितता के नाम पर मिलावट ही मिलावट
ऐसी उच्च शिक्षा और धन किस काम का जो आपको स्वस्थ न रख सके
डॉ कौशल किशोर मिश्रा (आयुर्वेदिक चिकित्सक ) अतिथि संपादक
भारत उन देशो की लिस्ट में सबसे आगे है। जहां सब कुछ मिलावटी होता जा रहा है। मिलावट में जहा मिलावट ही मिलावट है।
मिलावटी सीमेंट, मिलावटी सोना-चाँदी, मिलावटी भोजन, मिलावटी दूध, मिलावटी औषधियां, मिलावटी विचार, मिलावटी व्यवस्था, मिलावटी संविधान, मिली जुली सरकार।. यह कौन है जिसने मिलावट को हमारे जीवन और उद्योग में इतनी गहराई तक प्रविष्ट कर दिया है!
अकबर निरक्षर था किंतु राज्य के विद्वान लोग भी उसके आगे सिर झुका कर उसकी आज्ञा का पालन किया करते थे। हमें अपने आप से पूछना होगा कि शिक्षित, चिंतक और वैज्ञानिक होने का हमारे जीवन में क्या औचित्य है? हमारे कई मंत्री अशिक्षित हैं किंतु बड़े-बड़े वैज्ञानिक और उच्चशिक्षा प्राप्त ब्यूरोक्रेट्स उनके आगे-पीछे घूमते रहते हैं और वही करने के लिए बाध्य होते हैं जो मंत्री जी चाहते और निर्णय करते हैं। इसे लोग निर्लज्जता पूर्व लोकतंत्र का सौंदर्य कह दिया करते हैं परंतु सरस्वती को दासी और बंदिनी बना देने वाली व्यवस्था से मानव सभ्यता बारम्बार शिक्षा के अपरिणामगामी होने पर अपनी चिंता व्यक्त करती है और पूछती है कि उच्च शिक्षा में व्यय किए गए धन का क्या उपयोग?
सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व के निर्णयों का अधिकार किसके पास होना चाहिए? सरकारों ने हर विभाग में स्वच्छता के लिए बोर्ड या विभाग तो बना लिए और वहा पर सम्बंधित वैज्ञानिको की भी नियुक्ति कर दी। फिर भी अंतिम फैसला विभागीय मंत्री जिसकी शिक्षा का स्तर या तो शून्य है या विभाग के हिसाब से उतना नहीं की फैसला कर सके। लेकिन अंतिम फैसला मंत्री और सरकार द्वारा ही लिया जाता रहा है। इस देश के लोकतंत्र के इतिहास की अब तक के सफर में यही हुआ है।
अशिक्षित किसान को रसायन विज्ञान से क्या लेना-देना, वह तो अपनी फसलों में वह सब कुछ मिलता है, और मिलता रहेगा जो प्रकृति प्रेमी और रसायन शास्त्र के वैज्ञानिक नहीं डालने के लिए उपदेश देते हैं। सब्जियों और फलों में रासायनिक दवाइयों वाले इंजेक्शन कौन लगाता है?
बड़े-बड़े वैज्ञानिक वैसा नहीं कर पाते जैसा वे करना चाहते हैं बल्कि वैसा करते हैं जैसा उनके आसपास रहने वाले अ-वैज्ञानिक लोग कहते और करते हैं। हाइजिन के प्रोफ़ेसर का स्वच्छता का सारा ज्ञान धरा रह जाता है जब उसे वही दूध पीना पड़ता है जिसमें दूधवाले ने तालाब का अशुद्ध पानी मिलाया हुआ है और वही मिठायी खानी पड़ती है जिसे मिठायीवाला अन-हाइजेनिक तरीके से रखता और बेचता है। किसी डायटीशियन की सारी पढ़ायी धरी रह जाती है जब उसे विवाह समारोह में वही भोजन स्वीकार करना पड़ता है जो किसी के लिए स्वास्थ्यप्रद नहीं बल्कि हानिकारक होता है। और तो और अपने घर में भी विद्वानों को उसी तरह रहना और जीना पड़ता है जैसा कि उनकी पत्नी जी सोचती और व्यवस्था करती हैं। ज्ञान और अज्ञान की इस सहयात्रा में हमने तो ज्ञान को ही प्रायः पराजित होते हुए देखा है। तिरोहित तो प्रकाश को ही होना पड़ता, अंधकार तो प्रकाश के प्रकट होने से पहले भी था, और प्रकाश के तिरोहित हो जाने पर भी रहेगा।
हम अपने परिवेश में बहुत कुछ अवैज्ञानिक, अतार्किक और अकल्याणकारी घटनाओं को होता हुआ देखने और उसी में स्वयं को भी सम्मिलित कर लेने के लिए बाध्य होते हैं। पुस्तकीय ज्ञान, शोध कार्य, विद्वता, वैज्ञानिकता कुछ भी फलदायी सिद्ध नहीं हो पा रही है। हम सब एक समान विषाक्त परिवेश में जीने के लिए बाध्य हैं, हमारी शिक्षा का औचित्य क्या है?
एक बार पुनः विचार कीजिये। इतनी उच्च शिक्षा के बाद भी हम कहा खड़े है। ये हो सकता है की आप निजी अस्पताल जाते हो। महगे ईलाज भी लेते हो। लेकिन इतने धन और ज्ञान के बावजूद आपको बीमारिया मिलती ही है। और दवाइया भी खानी पड़ती है। अब वो चाहे सरकारी हो या ब्रांडेड।