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अपने ही जीवन यापन में फर्क करता इंसान ?

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जानवर बनने की चाह या मज़बूरी का फर्क। 

हम लोग अब ऐसे जीवन यापन के आदी हो चुके है कि  इंसानो और जानवरो के जीवन में ज्यादा फर्क नहीं रह गया  है। 

हम लोगों में से कई लोगो ने सड़क किनारे जीवन यापन करते आवारा जानवरों को जरूर देखा होगा, लेकिन कभी उनके व्यवहार और आहार को लेकर अध्ययन नहीं किया होगा।
सड़क किनारे के जानवरों में से अधिकतर वही जानवर होते है जो समाज के लोभी तबके के स्वार्थ सिद्ध या बेकार हो चुके गैरजरूरी वंशज होते हैं या इंसानी बस्ती में सदियों पहले पालतू बनाये गए स्वानो के झुंड जो स्वार्थ सिद्धि में अब बेकार हो चुके है। 

इन आवारा जानवरों का व्यवहार भी इन्ही की तरह लापरवाह और गैर जिम्मेदाराना होता है। इनका मकसद सिर्फ खाना और खाना ही होता है।  मौसम के आधार पर इनमें प्रजनन के भाव रहते है और प्रजनन होते ही रहते हैं  । इनकी संख्या में विशेष कर हिंदी पट्टी राज्यों में ज्यो की त्यों है, ना ज्यादा बढ़ी ना घटी। जबकि अधिकतर आवारा पशुओं की मौत सड़क दुर्घटनाओं से या सड़क दुर्घटना में बचे घायलों की देखभाल की कमी की वजह से हो जाती है।

अब सड़क दुर्घटना में घायल आवारा पशु होता तो एक पशु ही है इससे किसी को भी बिलकुल फर्क नहीं पड़ता कि सड़क दुर्घटना में कोई घायल है या कोई मर गया है।
यहाँ पर आप मातृत्व भाव को लेकर दो राय हो सकते है ,अन्यथा सड़कों के आवारा पशुओं में आपको सबक या शिक्षा लेने का कोई भाव देखने को नहीं मिलेगा।

हम लोग भी अपने समाज में गौर से देखें  तो सड़क दुर्घटनाओं को और अपनी खान पान की आदतों को देखें  तो दोनों ही जगह गजब की समानता मिलेगी। हर कोई अपने में ही मस्त है। समाज में कोई बुराई हो रही है तो होती रहे हम मस्त है या अपने में ही व्यस्त है। खान पान में भी हम हर मिलावट और गंदगी की परवाह किये बगैर ही खाते रहते हैं ,खरीदते रहते हैं । आज के दौर की किसी भी दिन के अखबार में दूध में मिलावट ,सब्जियों में हार्मोन या केमिकल के छिड़काव और खेतीबाड़ी में पेस्टीसाइड और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग की खबरों और खबरों के पीड़ितों के बारे में पढ़ सकते है, और पढ़ते भी है। लेकिन क्या फर्क पड़ा। 

आपके शहर के मशहूर दूध की दुकान वाला या फैक्ट्री वाला नकली दूध के धंधे में लिप्त था इससे आपको क्या फर्क पड़ा। क्या आपने दूध पीना पिलाना और खरीदना छोड़ दिया ? क्या आपने केमिकल और सीवर के पानी में पनपती सब्जियों को लेना बंद कर दिया? या  पेस्टीसाइड जैसे जहर बुझे अनाज खरीदना बंद कर दिया ? तो फिर क्या फर्क कर सकते है आवारा पशु और हम में। वो भी खुद के लिए जिया और मारा गया आप भी यही करोगे?

                कहते है भगवान की सबसे सुन्दर रचना इंसान की थी और बुद्धि भी इंसानो को मिली। लेकिन हाय री किस्मत आज का इंसान खाना भले ही पका हुआ खाता हो लेकिन कुछ दुर्घटना न हुई तो भी हमें तो बीमारी और बीमारी के इलाज करवाते करवाते ही मरना है और अपनी पीढ़ी को भी यही कुछ सौंपना है यही घटिया कचरे वाला भोजन और जहरीला पर्यावरण और वही वेंटिलेटर पर एडिया रगड़ती मौत। एक बार भागदौड़ की जिंदगी में रुक कर सोचें  तो सही आखिर भागना किसके लिए है और कहाँ तक भागना है जबकि आपका भविष्य तय है। तो क्यों न हम इंसानो की मौत मरे ना की किसी दुर्घटना या बीमारी की तड़पती मौत से ।

फ़ूडमेन आपके विचार और सवालों का स्वागत करता  है। हमसे पूछे या हमारी सुने और अपने  जीवन को और जीवन के अंतिम पलों को शानदार न सही लेकिन साधारण हो कर तो अपना सकते है।

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