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तिल तिल मरता पानी
भारत की नदियों के पानी को जहरीला करता हमारा समाज
पानी हर जीवन के लिए आधार है। भारत में ही नहीं दुनिया की हर सभ्यता पानी को लेकर अपनी अपनी आस्था रखती है
भारत की संस्कृति में नदियाँ भगवान रूपी देवी मान कर सदियों से पूजा की जा रही है। भारत में नदियों को लेकर हमारी आस्था ही पूजनीय है। हमारा व्यवहार नदियों को लेकर गंदे नाले जैसा ही है। कहने सुनने में उक्त कथन विवादित हो सकता है लेकिन गलत बिल्कुल नहीं है। भारत में नदियों की आस्था के साथ साथ जरूरत भी है।
आज जहां भूगर्भीय जल स्तर अपने सबसे निचले स्तर पर आ चूका है खतरे के निशान के आस पास ही डोल रहा है। वही हम और सरकार नदियों को लेकर कितने संवेदनशील है।
ये जानने के लिए बहुत लम्बा इतिहास और आंकड़े छानने की आवशयकता नहीं मात्र एक साल के ही आंकड़े और हालत हमारी और सरकारो की नदियों के प्रति जिम्मेदारी का मखौटा उखाड़ फेंक सकती है।
ज्यादा समय नहीं बीता है लॉकडाउन हटे को। इंसानी गतिविधी थोड़ी ही कम हुई की नदिया साफ़ हो गई। जिस यमुना को साफ़ करने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार के करोडो रूपए एक साल में फुक जाते थे वो लोकडाउन में स्वतः ही साफ़ हो गई।
देश भर की नदियों के पानी की गुणवक्ता में 40% से 50% तक का अभूतपूर्व सुधार देखने को मिला। लॉकडाउन के दौरान मिडिया ने भी थक चुके भारतीयों को लॉकडाउन के फायदों में एक फायदा नदियों और वातावरणीय प्रदूषण की कमी से जनता में राष्ट्रभक्ति और लोक कल्याण के लिए कुछ दिन घर पर रह कर शहीद होने जैसा गर्व करवाया था।
लॉकडाउन जैसे लगा था वैसे हट भी गया और एक साल के भीतर ही हम हमारी नदियों को वापस उसी हाल में ले आये या कहे की उससे भी बदतर हाल में ले आये जो लॉकडाउन से पहले थी। क्योंकि अब पहले की तुलना में ज्यादा कीटनाशक और एंटीबायोटिक्स नदियों के पानी में जाने लगे है।
वैज्ञानिक और विशेषज्ञ निकट भविष्य में ही जल संकट आने की चेतावनी दे रहे है। और जल संकट से हर कोई दो दो हाथ कर रहा है। कोई ज्यादा कर रहा है कोई कम कर रहा है। जल संकट में भारत के कई हिस्सों में पलायन भी हो रहा है।
इन सब के बावजूद पानी हमारी प्राथमिकता में तो है। लेकिन व्यवहार और मुद्दों में जल संकट कोई मुद्दा है ही नहीं ?
एक दो दिन की जल का आपूर्ति बिगड़ जाये तो अख़बार और मिडिया वाले छूट भइये नेताओ के साथ मोहल्ले की महिलाओ को मटकिया चौराहे पर फोड़ने बुला लाते है।
फोटो छप भी जाता है और दिख भी जाता है। हर गर्मियों में ये समाचार देख सुन हमें पानी की कमी समस्या तो लगती है। लेकिन अभी भी हमारे लिए रूस यूक्रेन का युद्ध का परिणाम महत्त्व रखता है।
देश की 80% से ज्यादा जनता पानी के लिए नदियों पर आधारित है। जिन भागो से नदिया नहीं गुजरती वहाँ नहर है। लेकिन हम भारतीयों के लिए हर बहता दरिया नाला ही है।
आज ही अख़बार में खबर थी कि केदारनाथ में खच्चर रखने वाले खच्चरों के शवों को नदियों में बहा देते है। गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे लगे औधोगिक नगर अपना सारा कूड़ा और केमिकल युक्त कचरा नदियों में बहा देते है।
नदियों के इको सिस्टम को हमारे द्वारा फैलाई जा रहे एंटी बायोटिक से अब मरने या बिगड़ने के हालत में आ चुके है। आने वाले 5 सालो में नदियों का पानी पीना तो छोडिए हाथ लगाने के लायक भी नहीं बचेगा?
बात नदियों के पानी के बिगड़ते हालात की नहीं बात हमारे व्यवहार की है। हम कब इस बात को समझना शुरू करेंगे की जल ही जीवन है और जल के लिए नदिया जरुरी है। और इस लिए इस मुद्दे की राजनीति होना और इसे राजनैतिक पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्रों तक पहुंचना हम भारत के नागरिकों की प्रथम नैतिक जिम्मेदारी है।