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हम ही समझदार क्यों बने – विज्ञापन का भ्रम

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विज्ञापन का भ्रम
अजमेर उपभोक्ता अदालत में एक दिलचस्प परिवाद 2019 से चल रहा है। अजमेर  निवासी तरुण अग्रवाल ने फिल्म “दे दे प्यार दे ” के पोस्टर में दिखाई दिए सीन का फिल्म में ना होने को लेकर परिवाद लगा दिया। आप परिवादी की मंशा पर संदेह कर सकते है। सस्ती लोकप्रियता या बड़े नामो के साथ अपना नाम विवाद में जोड़ना या पैसे की चाह ,आप स्वतंत्र देश के स्वतंत्र निवासी है तो आपको सोचने की भी स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप से है। लेकिन परिवादी के प्रयास की प्रशंसा भी उतनी ही ईमानदारी से होनी चाहिए। जितनी मंशा को लेकर संदेह भावना को लेकर हुई थी।
                                          सरकार द्वारा जनहित में जारी “जागो ग्राहक जागो ” अभियान का कोई औचित्य नहीं अगर आप अपने उपभोग के उत्पाद की शिकायत पर उदासीन हो जाये। एक उपभोक्ता के रूप में आप का कितनी बार उत्पीड़न हुया  है,  हो रहा है। इस समझ की समझ का  होना स्वतंत्र देश के जागरूक नागरिक निशानी है। हालाँकि उक्त परिवाद में अजय देवगन के वकील ने इस बात से  अपना दामन  झाड़ कर निर्माताओं का पल्लू पकड़ने की बात कही है। क़ानून की द्रष्टि  ये बात सही भी लगती है ,लेकिन नैतिकता के आधार पर क्या बात इतनी सीधी है।
विज्ञापन का काम होता है आपको प्रेरित करना जिससे  आप उस उत्पाद का जो उपयोग हो सकता है उसके लिए ख़रीदे। लेकिन जो दावा विज्ञापन करता है वो आप महसूस ही न करे तो क्या आपकी समझ का स्तर नीचे  है या उत्पाद के विज्ञापन का दावा ? एक धारणा समाज में फैली हुई है ,कि  विज्ञापन है कुछ भी दिखा सकते है अपनी समझ को काम में लो और समझदार बनो।
 एनर्जी ड्रिंक पीने  के बाद अंदर कितना तूफान उठा ? गोरे  होने की क्रीम कितनी कारगर रही? ये बातें  करना खुद का ही मजाक उड़ाने जैसा लगता है। और समझदार लोग हमें समझदारी का ज्ञान भी दे देते है। लेकिन
ये नैतिक जिम्मेदारी समाज पर ही क्यों ? क्या ये नैतिक जिम्मेदारी का बोझ विज्ञापन दाता और निर्माता और विज्ञापन के नायक की भी नहीं है की  वो जो सन्देश विज्ञापन में दे रहा है वो कितना सही है। हमें आज भी नहीं लगता कि समझदार व्यक्ति केवल उत्पादों को इसलिए उपयोग में लाएगा क्योंकि अमिताभ भी उसे उपयोग कर रहे हैं।
बरहाल ये समझदारी के बोझ में दबे समझदार जब अपनी धार्मिक भावनाओ के ठेकेदारों के आह्वान पर सोशल मिडिया पर लठ ले कर निकल पड़ते है वो एक बार खुद से भी तो पूछे की विज्ञापन दाता और  निर्माता की हिम्मत कैसे बढ़ी? सोचने की जरूरत है। किसी ने कहा है “होने को आसमान में भी छेद हो सकता है एक कंकर तो तबियत से उछालो यारो। हमारे लिए तो ऐसे जागरूक नागरिक बहुत जरुरी हैं जो गलत या ठगी होने पर अदालत भी चले जाते हैं

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