कंज्यूमर कार्नर
मनचाहा खाने की मज़बूरी
क्या हम सच में अपनी ही पसंद का खा रहे है
“मनचाहा खाने की मज़बूरी” सुनने में अजीब लगेगा। लेकिन जैसे जैसे आप इस लेख को पढ़ते जायेंगे आपको समझ में आ जायेगा।
मनचाहा खाने की इच्छा किसकी नहीं होती ? हर कोई अपनी मर्जी से और अपनी पसंद के अनुसार ही खाना चाहते है। लेकिन अगर आपकी पसंद आपकी हो ही नहीं और किसी भी तरह से ये साबित किया जाये की आप जो खा रहे है वो आप की ही पसंद है। तो फिर इसे आपकी पसंद करने की स्वतंत्रता और योग्यता पर सवालिया निशान लगता है।
उदाहरण से समझते है। आप एक रेस्टोरेंट में जाते जो चाइनीज है। वहा आपकी इच्छा रोटी खाने की होती है। और आपको पिज्जा परोसा जाता है। आपकी इच्छा गुलाब जामुन खाने की है और आपको ब्राउनीज और चॉकलेट केक के विकल्प दिये जाते है। और आप कुछ भी विरोध के बिना उसको स्वीकार कर लेते है। कभी दोस्तों के अनुसार तो कभी फैशन और रेस्टोरेंट के प्रकार के अनुसार। आप चाह कर भी अपनी पसंद के अनुसार न लेते हुवे रेस्टोरेंट और फैशन और स्टेटस के दबाव में वही खाते है। जो आपको उपलब्ध करवाया गया है। ये ही मनपसंद खाने की मज़बूरी है। आपको फैशन और स्टेटस के दबाव में अपनी पसंद बाजार के अनुसार बनानी पड़ती है।
इसी तकनीक का उपयोग आपकी खरीदने की इच्छाओ पर भी किया जाता है। आप भुजिया ,पकोड़े या सेम खाना चाहते है। लेकिन आपकी इसी चाह को बाजार चिप्स और नमकीन स्नैक्स जो फैक्ट्री मेड और मिडिया में विज्ञापित है। उसी को लेने आपको अदृश्य रूप से मजबूर करता है।
आज आप घर में हो या बाहर अकेले में हो या भीड़ में आपको बाजार की दीवारों और टीवी पर रेडियो में मोबाइल फ़ोन पर हर क्षण आपको कुछ न कुछ खरीदने और खाने के लिए मजबूर किया जाता है। आप गौर करे फ़ूड डिलीवरी एप्प के विज्ञापन में आपको झोंक की आवाज या किसी भी भोजन के पकने की आवाज सुनाई जाती है ,जिसका उद्देशय आपके अवचेतन मस्तिष्क की उन भावनाओ से खेलना होता है। जो आप की भूख को लक्षित करे। और आपको कुछ खाने की इच्छा प्रबल हो। आपकी इच्छा प्रबल हो और खरीदने के लिए प्रेरित करने के लिए आपको कई ऐसे प्रलोभन दिए जाते है जिससे आपको खरीदने के लिए वह खाना सस्ता भी लगे।
आपको नहीं लगे तो आप के नजदीकी रिश्तेदार या दोस्त को लग सकता है। ऐसे में आप या आपका दोस्त उसे आर्डर कर ही देगा और आपको भी खाना पड़ेगा।
बाजार में खाने की पसंद को बनाया जाता है। और फिर उसी को इतना विज्ञापित किया जाता है। की धीरे धीरे वो आपकी पसंद बन जाये। इन कंपनियों का लक्ष्य बच्चे व नौजवान ही होते है। जिनके सपने और कल्पनाये असीमित होती है। इन्ही सपनो और कल्पनाओ के आधार पर विज्ञापन बनाये जाते है। और इनको इन्ही की पसंद से बना मनपसंद खाद्य या पेय बेचा जाता है।
फ़ूड इंडस्ट्री कभी भी उन उत्पादों का उत्पादन या प्रचार नहीं करती जो वो बना कर लम्बे समय तक सुरक्षित नहीं कर सके। यहाँ तक की होटल व्यापर में भी आप मात्र कुछ ही प्रकार के व्यंजनों तक सिमित देखेंगे। आपको मटर पनीर शाही पनीर हर होटल में मिलेगी लेकिन भिंडी ,करेला ,तोरई की सब्जी आपको बहुत ही कम देखने को मिलेगी। चाय कोफ़ी हर जगह मिलेगी लेकिन खीर हलवा पूड़ी हर जगह देखने को नहीं मिलती। राजस्थान में हर त्यौहार ,उत्सव व मांगलिक कार्यो के लिए गेंहू या बाजरे को चीनी व घी के साथ पका कर भोग लगाने व खाने की परंपरा है। इसे “लापसी” कहते है। लेकिन ताज्जुब की बात ये है की आपको पुरे राजस्थान में एक दो स्थानों को छोड़ कर कही भी लापसी की दूकान नहीं मिलेगी।
यही हाल कई परम्परागत पकवानो के साथ है। गुड़ के गुलगुले ,मालपुवे पुरे भारत में एक दो जगहों तक ही सिमित है। खिचड़ी आपको किसी होटल ढाबे नहीं मिलेगी। ऐसी अनगिनत खाद्य व पेय सामग्री है जो आपको बाजार में नहीं मिलेगी और मिलेगी तो भी बहुत ही सिमित इलाको में। ऐसे में अगर आपको कुछ भी खाने की इच्छा हो तो आपके सामने वही घिसे-पिटे होटल्स रेस्टोरेंट व ढाबो के मेनू कार्ड और वही प्लास्टिक के थेलियो में बंद स्नेक्स व बिस्कुट के अलावा क्या उपलब्ध है। और जो उपलब्ध है अगर वही आपकी पसंद है तो ये ही मज़बूरी हुई ना।
कहने को हम यह भी कह सकते है की जो खाने पीने की चीज आमतौर पर घर में नहीं बनती वही हम बाजार में खाते है। जैसे जंक फ़ूड। तो फिर होटल और ढाबो पर भी तो हम खाना खाने ही जाते है। जहा पर आमतौर पर घर जैसा स्वाद को विज्ञापित किया जाता है।
कुल मिला कर हमें बाजार द्वारा दिए विकल्पों को ही अपनी पसंद बनानी पड़ती है।