संपादकीय
अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना के मसालों की गुणवत्ता पर संदेह – आरोप
अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना की मसालों की गुणवत्ता पर वायरल हो रहे वीडियो।
राजस्थान सरकार ने जारी किये संभाग स्तर पर हेल्प लाइन नंबर।
राजस्थान की कांग्रेस सरकार द्वारा 15 अगस्त 2023 को जारी अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना अपने शुरुआती चरण में ही विवादों से घिर गई। कई लोगो ने अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना के तहत मिले पैकेट की क्वालिटी को लेकर वीडियो सोशल मिडिया पर डाले है जिसमे मसलो की क्वालिटी बहुत ही निम्न स्तर की दिखाई दे रही है।
अभी हाल ही में राजस्थान की गहलोत सरकार ने अपनी योजनाओं के लाभार्थियों को योजना से हुए लाभ का वीडियो शेयर करने के लिए एक लॉटरी स्कीम चलाई है। शायद अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना के लाभार्थियों को ये समझ में नहीं आया के लाभ बताने है या कमियां ?
बरहाल स्थिति जो देखते हुवे राजस्थान सरकार ने संभागीय स्तर पर हेल्पलाइन नंबर जारी कर इस योजना के तहत ख़राब या तय वजन से कम सामान के पैकेट की जानकारी इस नंबर पर दे कर संबंधित दुकान व सामान की शिकायत की जा सकेगी।
राजस्थान सरकार द्वारा आननफानन में लागु की गई इस योजना पर सरकार द्वारा व अधिकारियो द्वारा खाद्य सुरक्षा के कोई तो मानक व प्रमाणिकता तय की गई होगी। और आहार मानक और मापदंड स्थापित किये गए है तो ये वायरल वीडियो क्या है ?
ऐसा नहीं है सरकार द्वारा जनहित में प्रसारित यह कोई इकलौती योजना है। इससे पहले मोदी सरकार की कोरोना काल के दौरान भी गरीब कल्याण योजना और 2014 में कांग्रेस द्वारा लाई गई खाद्य सुरक्षा योजना और सरकारी सस्ते दामों की दुकान योजना आदि चल रही है और चलती आई है।
इन योजनाओं में हमेशा नैतिकता का अभाव रहा है। आज जो वीडियो राजस्थान की अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना के तहत बांटे गए मसालों के सन्दर्भ में है। गुणवत्ता के विषय में है। सच्चाई यही है की गरीबों को सस्ता और निम्न स्तर के खाद्य प्रदार्थ उपभोग करने की आदत हो चुकी है।
इसी आदत के जिम्मेदार अफसर और व्यापारी यही सोच कर उन गरीबो को वही खाद्य सामग्री देना चाह रहे है जो वो देते आये है। लेकिन विपक्ष की राजनीति कहे या स्वार्थ की राजनीति ऐसे विडियो सोशल मिडिया पर वायरल किए जा रहे है। जबकि गरीब के पास 4g मोबाइल और इतना डेटा उपलब्ध भी न होगा।
कोई बिड़ला ही होगा जिसे सरकारी सस्ते अनाज की सच्चाई का पता न हो या मिड डे मिल में परोसे जाने वाले खाने की जानकारी न हो। ऐसे में सरकारों की नियत और नियति में फर्क करना जनता को आना चाहिए।
आज जरूरत खाद्य सुरक्षा की नहीं बल्कि खाद्य की गुणवत्ता की सुरक्षा को लेकर प्रथम है। हो सकता है की लापरवाही या गरीबो की आदतन सोच को ध्यान में रखते हुवे मसालों का ऐसे ही पैक कर दिया गया हो। जो की ये खाद्य व्यापारी बाजार में उतरने पहले खाद्य व अखाद्य रंगो की डाई लगा कर बेचा करते है। सरकारी मसालों और बाजार के मसालों में सिर्फ रंग का ही महत्व है। गुणवत्ता सिर्फ विज्ञापनों में ही कथित रहती है।
ऐसे में सिर्फ दिखने और लगने के आधार पर अन्नपूर्णा फ़ूड पैकेट फ्री राशन योजना के अधिकारी निर्माता और ठेकेदार करोडो परिवारों स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ ही कर रहे है।
2024 के लोकसभा और राजस्थान के विधानसभा चुनाव सर पर है। ऐसे में जनता आरक्षण और अपने हक़ और अधिकार के साथ साथ खाद्य सुरक्षा और खाद्य तत्वों की सुरक्षा और मानक प्रमाणीकरण को भी अपना मुद्दा बना कर। भविष्य की पीढ़ियों के रोग और बीमारियों को लेकर गंभीर हो सकती है।
खेती में बढ़ रहे रासायनिक कीटनाशकों और जहर के उपयोग को लेकर लेकर वर्तमान सरकार को घेर सकती है ,और आगामी सरकारों को सोचने पर मजबूर भी कर सकती है लेकिन इस के लिए धार्मिक ,जातिगत राजनीती से ऊपर उठाना पड़ेगा
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“चमत्कार” इंडिया गेट बासमती चावल रिकॉल !
सवाल -इंडिया गेट बासमती चावल स्वतः रिकॉल किया गया या करवाया गया ?
चमत्कार।जी हाँ चमत्कार हो गया। इंडिया गेट बासमती चावल रिकॉल किया गया !वो भी कम्पनी द्वारा !भारत जैसे देश में किसी फ़ूड कम्पनी द्वारा उत्पाद रिकॉल किया गया हो। अब तक के इतिहास में ना हमने सुना ना देखा !
खैर ख़ुशी राम बिहारी लाल लिमिटेड (K.R.B.L.)ने अपने उत्पाद इंडिया गेट बासमती चावल राइस फीस्ट (दावत ) रोजाना सुपर वैल्यू पैक (10%एक्स्ट्रा ) के 1.1 किलो कीटनाशकों की अधिकता के चलते बाजार से रिकॉल कर लिए है। इंडिया गेट बासमती चावल में थियामेथोक्सम और आइसोप्रोथिओलेन आदि कीटनाशक मानक मात्रा से अधिक पाए गए है,जिसे अब बाजार से रिकॉल किया गया है। कंपनी ने आधिकारिक रूप से जानकारी देते हुए उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद
इंडिया गेट बासमती चावल दावत रोजाना सुपर वैल्यू पैक
वजन -1.1किलो
बेच संख्या B-2693 (CD-AB(DC-SJ) (BL 6)
पैकिंग डेट -जनवरी 2024
बेस्ट बिफोर डेट -दिसंबर 2025
को बाजार से वापस ले लिया है।
फ़ूडमेन सवाल
K.R.B.L. ने खुद से रिकॉल किया या किसी जांच एजेंसी के दबाव में रिकॉल किया ?
K.R.B.L. की खुद की लैब में चावलों का परीक्षण क्यों नहीं किया ?और अगर किया तो फिर बाजार में अपना उत्पाद क्यों उतारा ?
चावल कहाँ से लिए गए थे ?
FSSAI ने अब तक क्या कार्यवाही की है या भविष्य में क्या कार्यवाही करेगी ?
रिकॉल चावलों का क्या किया जायेगा ?
रिकॉल चावलों का क्या किया जायेगा ?ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। क्यों की किसी भी जांच एजेंसी ने चावलों को जब्त नहीं किया है।ये रिकॉल का चावल पुनः कम्पनी के पास ही है।क्या कम्पनी चावल नष्ट करेगी या पुनः किसी और माध्यम से बाजार में ही बेच देगी। थियामेथोक्सम ऐसा कीटनाशक है जो पौधो की जड़ो से पराग तक में फैला होता है। इसे धोकर निकलना असंभव है। ये भी महत्वपूर्ण प्रश्न है की K.R.B.L. कम्पनी कोई मामूली चावल छिलने की मिल या फैक्टरी नहीं अपितु एक बड़ी कॉर्पोरेट कम्पनी है। तथा एक्सपोर्टर भी है। कंपनी के पास हाईटेक लैब है। तो कम्पनी को चावलों में मानक से ज्यादा कीटनाशक होने का पहले पता क्यों नहीं चल पाया या जानबूझकर लापरवाही की गई ?
हमारे देश में खाने पीने की चीजों को लेकर कोई खास जागरूकता नहीं है। ऐसे में कीटनाशकों की अधिकता लिए ये चावल किसी भी अन्य शहर गांव में बिकने को भेजे जा सकते है। साथ ही कम्पनी ने यह भी नहीं बताया की ये चावल कहाँ से आये है। ताकि ऐसे चावलों की खेप को बाजार में जाने से रोका जाये। वैसे ये हमारे देश में संभव भी नहीं है। हर रोज ऐसे ही खाद्य पदार्थ हमारे बाजारों में भरे रहते है। जो जनता को बीमार से गंभीर बीमार किये जा रहे है। FSSAI जिसके जिम्मे हमारे खाद्य पदार्थों की सुरक्षा का जिम्मा है। वो FSSAI कॉरपोरेट की कठपुतली बन कर बहुत ही बेशर्मी से इवेंट इवेंट का खेल खेल रही है।बस !
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क्या FSSAI की चाबी उद्योगपतियों के हाथ में ? A1-A2 मिल्क लेबलिंग में दर्शाने पर प्रतिबन्ध लगाया था।
किस दबाव में FSSAI मिल्क लेबलिंग पर A1-A2 मिल्क लिखने का आदेश वापस लिया।
FSSAI या खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण अपनी शुरुवात से ही बड़े उधोगपतियो के हित में नीतिया बनाने को लेकर आलोचनाओं के घेरे में रहा है। हाल ही में FSSAI द्वारा दूध की बिक्री और लेबलिंग को लेकर आदेश पारित किये थे कि दूध की बिक्री में दूध की लेबलिंग पर A1-A2 मिल्क लिखना प्रतिबंधित किया जाता है। यानि की A1-A2 मिल्क को लेकर उपभोक्ता भ्रांतियों से निकल पाए इसलिए दूध बिक्री में दूध की लेबलिंग में A1-A2 मिल्क लिखना प्रतिबंधित किया था।
जो की सही भी था।फ़ूडमेन ने भी इसका समर्थन किया है।दरअसल में A2 मिल्क के नाम पर कई दूध उत्पादक उपभोक्ताओं को कोई भी दूध बेच कर बहुत ज्यादा लूट रहे है । शहरी बाजार में A2 दूध 100 रु प्रतिलीटर से 200 रु तक में बेचा जा रहा है। ऐसे में A 2 दूध के अन्य उत्पादों जैसे घी मक्खन पनीर आदि की कीमत मुंहमांगी हो जाती है। A1-A2 मिल्क में क्या फर्क होता है या कैसे पता करे की दूध A1या A2 है इसका कोई घरेलु या प्रोफेशनल टूल किट अभी बाजार में उपलब्ध नहीं है। मात्र DNA टेस्ट के जरिये ही A1-A2 मिल्क की पुष्टि हो सकती है।
ऐसे में जहां भारत में नकली दूध का बाजार इतना बड़ा है लेकिन A2 मिल्क के नाम पर उपभोक्ताओं को दूध मोटे मुनाफे में बेचा जा रहा है।ऐसे में A1-A2 मिल्क पर फैली भ्रांतियों को और बाजार में A2 मिल्क की ठगी को रोकने के लिए FSSAI यह कदम उठाया था।
यह पहली बार हुवा है कि जब FSSAI ने अपने लिए फैसलों और आदेशों को वापस लिया है। आमतौर पर FSSAI अपने ऐसे आदेशों को ठन्डे बस्ते में डाल देती है।FSSAI खाद्य उधोग में ऐसे चौकीदार का काम करता है जो रात को “जागते रहो” कहता रहता है। ताकि लोगो को लगे की कोई काम तो कर ही रहा है। FSSAI भी हर साल किसी न किसी रूप से कोई आदेश प्रेस रिलीज से जारी करती है। ताकि सरकार और जनता को लगे की काम तो हो रहा है। लेकिन FSSAI अपने ही आदेशों का कोई अनुसरण नहीं करवा पाती। और आदेश ठन्डे बास्ते में चले जाते है
इससे पूर्व भी 2023 में FSSAI पैकेज फ़ूड लेबलिंग पर हेल्थ स्टार रेटिंग (HSR )जिसमे उत्पाद का मनुष्यो की हेल्थ के प्रभावों को देखते हुवे पांच सितारा रेंज को लेकर रणनीति को सार्वजानिक किया था। जिसमे उत्पाद की स्वास्थ्य पर प्रभावों को देखते हुवे एक स्टार से 5 स्टार तक की रेंज में उत्पादों को सूचीबद्ध करना था। लेकिन इसे ठन्डे बास्ते में दाल दिया गया।
ऐसे ही पान मसाला उधोग के लिए पानमसाला पैकिंग में फ्रंट में 50 % तक की जगह में पान मसाला चबाने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जैसी चेतावनी लिखने के आदेश दिए थे जो एक साल बाद भी पूरी तरह से लागु नहीं हुवा। और अब जब हुवा है तो FSSAI के आदेशों का गोलमोल तरीके से पालन किया गया है। कई बड़े पान मसाला उत्पादक 50% को ऐसे लिखा है जो की दिखायी भी दे और नहीं भी।
ऐसे ही Fssai द्वारा FocTac नाम से एक ट्रेनिंग स्कीम भी लागु की जिसमे छोटे बड़े खाद्य व्यापर से जुड़े लोगो को अच्छी तरह से ट्रेंड करना व खाद्य सुरक्षा को लेकर ट्रेनिंग देना था। जिसके तहत देश भर से फ़ूड टेक से जुड़े लोगो को ट्रेनर के रूप में ट्रेनिंग दी गयी ताकि वो दूसरे छोटे बड़े खाद्य उधोग से जुड़े लोगो को खाद्य सुरक्षा ट्रेनिंग दे पाए। इस ट्रेनिंग के बाद ट्रेनिंग लेने और देने वालो को यह भी बताया गया की यह ट्रेनिंग खाद्य उधोग व लाइसेंस के लिए अनिवार्य की जाएगी। लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुवा और धांधली अभी तक चालू है।
ट्रांस फेट को कम करने के WHO के फरमान के बाद भी अभी तक FSSAI ने अभी तक कोई रणनीति नहीं बना पायी है।
पिछले साल मिठाइयों को लेकर दिशानिर्देश दिए गए थे कि मिठाई के डब्बो पर बनाने की तारीख और बेस्ट यूज़ लिखना जरुरी था। लेकिन ऐसा कुछ हुवा नहीं।
होटल्स रेस्टोरेंट में मेन्यू कार्ड पर लिखी डिसीज की मुख्य सामग्री लिखने के दिशानिर्देश भी ठन्डे बस्ते में है।
दूध में विटामिन डी का फोर्टिफिकेशन और इसी तरह खाद्य तेलों में भी फोर्टिफिकेशन के लिए दिशानिर्देश जारी किये गए थे लेकिन अब तक हुवा कुछ नहीं।
इसी साल बोर्नविटा प्रकरण में FSSAI के आदेश थे की बोर्नविटा या अन्य ऐसे उत्पादों को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से हेल्थ ड्रिंक सेगमेंट से हटाया जाये।लेकिन अभी तक ऐसा कुछ धरातल पर देखने को नहीं मिला।
डब्बा बंद फ्रूट जूस पर 100% फ्रूट जूस व दूध व ज्यूस पर फ्रेस लेकर भी दिशा निर्देश दिए गए है।
2016 से 2018 तक चीन से डेयरी उत्पाद के आयत पर प्रतिबन्ध था जो की बिना किसी सुचना के शुरू हो चूका है। एक वेबसाइट वोल्ज़ (www.volza.com)के अनुसार फरवरी 2024 तक चीन से 301 डेयरी प्रोडक्ट के शिपमेंट भारत में आयात हो चुके है।
A1-A2 मिल्क पर दिया आदेश वापस होना वैसे ही है जैसे हफ्ता लेने के लिए किसी को एक बार डरा दो और बाद में हफ्ता मिलते ही उसको आराम से धंधा करने के लिए और बंदी जारी रखने के लिए एक मोन समझौता। FSSAI पर हमेशा बड़े उधोगपतियो के लिए नीतिया बनाने के लिए मशहूर है। और छोटे व्यापारियों के लिए मुश्किलें खड़े करने के लिए बदनाम।
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फूड टेस्टिंग लैब ,एक अलग विभाग हो।
फूडमेन की परिकल्पना FSSAI से अलग हो फूड टेस्टिंग लैब विभाग।
भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना FSSAI की जिम्मेदारी है। FSSAI ने देश भर में 224 खाद्य प्रयोगशालाओ को खाद्य परीक्षण के लिए अधिसूचित किया है। जिनमे प्राथमिक परीक्षण के लिए 53 राज्य सरकार की प्रयोगशालाएं 145 निजी प्रयोगशालाओं ,26 अन्य सरकारी प्रयोगशालाएं तथा रेफरल खाद्य परीक्षण के लिए 20 प्रयोगशालाएं है। गौरतलब है की FSSAI द्वारा खाद्य वस्तुओं के अलावा न्यूट्रास्यूटिकल ,शराब ,गुटखा व पान मसाला व कई तरह के आयुर्वेदिक FMCG उत्पादों का नियमन किया जाता है। जो की प्रयोगशालाओं को देखते हुए बहुत विशाल है।
त्योहारों के आसपास शहरों में नकली दूध ,पनीर मावा आदि पकडे जाने व खाद्य नमूनों को लैब भेजने के समाचार छपते ,दिखते रहते है। लेकिन कार्यवाही के समाचार नहीं आते और ना ही नमूनों के परिक्षण की सुचना आम लोगो को दी जाती है। नमूनों को परिक्षण के लिए भेजने और परिक्षण में लगने वाले समय में ही नमूने ख़राब हो जाते है। या जानबूझ कर करवा दिए जाते है।
अब तक के FSSAI के इतिहास में मैगी के अलावा कोई बड़ा रिकॉल नहीं किया गया है। ऐसे में FSSAI की कार्यशैली पर सवाल उठता है। तथा हालिया में वायरल होते खाद्य पदार्थो में लापरवाही के विडिओ भी FSSAI की कार्यशैली को और भी संदिग्ध बनाती है।
एक आम नागरिक को पता ही नहीं होता है की खाद्य परीक्षण कहाँ करवाये यहाँ तक की छोटे व्यापारी को भी पता नहीं होता की उसके दुकान से लिए नमूने कौनसी लेब में गए है। और परीक्षण रिपोर्ट कब तक आएगी।
एक खाद्य सुरक्षा अधिकारी का काम खान पान की दुकानों और प्रतिष्ठानों पर जा कर होने वाली गतिविधियों पर नजर रखना और उसके उत्पादों की जांच करने के लिए खाद्य नमूनों को जांच के लिए सरकारी प्रयोगशाला में भेजना होता है । जांच के लिए खाद्य उत्पाद के नमूने भी भेजने के लिए खाद्य सुरक्षा विभाग में ये खाद्य नमूने बिना किसी रखरखाव के कई दिनों तक पड़े रहते हैं. खाद्य व्यापारी घबराकर इस जांच को रोकने के लिए कुछ भी करने को राजी हो जाता है।
भ्रष्ट अधिकारी इसी बात का फायदा उठाकर अपने इंस्पेक्टर राज को कायम रखते हैं. खाद्य पदार्थों की सुरक्षा का जिम्मा और जांच का जिम्मा एक प्राधिकरण पर होने में घालमेल ही हो सकता है. रिपोर्ट में अधिकारी खाद्य नमूनों से छेड़छाड़ करके मिलावटी न सही लेकिन घटिया बना कर उसे दोषी साबित भी कर सकते हैं। राज्य भर से खाद्य परीक्षण के लिए आने वाले खाद्य नमूनों की अत्यधिक मात्रा में आने से और स्टाफ की कमी भी एक कारण है कि रिपोर्ट में देरी का।
अतः निरीक्षण और परीक्षण एक ही मंत्रालय की संस्था देखे ये व्यापारियों को भी उचित नहीं लगता क्योंकि बाजार की आज की स्थिति में खाद्य अधिकारियों की मनमानी से व्यापार करना मुश्किल होता जा रहा है। इसमें शुद्ध वस्तुओं के व्यापारी पिसते हैं जो कि जांच के हथकंडों में फंसकर अपने व्यापार को बंद कर लेते हैं।
जांच एवं परीक्षण को FSSAI से हटा कर ही उत्पादों पर भरोसा यदि बनाना है तो एक अलग नियामक संस्था को जिम्मेदार बनाया जाए, जैसे कि QCI है जो कि उपभोक्ता मंत्रालय की संस्था है और देश भरे में होने वाले व्यापार वस्तुओं के लिए मानक तय अपनी अधिमान्य प्रयोगशालाओं के जरिए करती है। सरकारी व्यवस्था में जब जिम्मेदारी इस प्रकार बांटी जाय कि एक हाथ को दूसरे हाथ के काम का पता न चले और गोपनीयता के तहत कार्य संपादन किया जाएगा तब जनता भी जांच पर भरोसा करेगी। इस पूरे जांच और परीक्षण के प्रोटोकॉल को भी निर्धारण करने का जिम्मा स्वतंत्र संस्था पर होना चाहिए।
फ़ूडमेन अपनी एक राय प्रस्तुत करता है। की फ़ूड टेस्टिंग लैब का विभाग FSSAI से अलग हो ,एक अलग से विभाग बनाया जाये जो खाद्य पदार्थो की जाँच करे।
जिससे खाद्य परीक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में विशेषज्ञता और ध्यान की आवश्यकता होती है। एक अलग विभाग इस पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकता है, जिससे खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। अलग विभाग होने से उत्तरदायित्व और जवाबदेही में वृद्धि होती है। यदि खाद्य सुरक्षा में कोई समस्या होती है, तो इसे विशेष विभाग द्वारा जल्दी और प्रभावी तरीके से संबोधित किया जा सकता है।
स्वतंत्र फ़ूड लैब निरंतर सुधार और अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित कर सकती है। इससे खाद्य सुरक्षा के नए तरीकों और तकनीकों का विकास हो सकेगा, जो अंततः उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा को बढ़ावा देंगे। और देश में खाद्य सुरक्षा व खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता पर पैनी नजर रखी जा सके।
कंज्यूमर कार्नर
तो क्या अब होटल रेस्टोरेंट में खाना खाने की पूरी वीडियोग्राफी जरुरी हो गई है ?
क्या हर पैकेज फ़ूड को अनपैक करते वीडियोग्राफी जरुरी हो गई है ?
तो क्या अब हर खाने पीने से पहले खाने की वीडियोग्राफी जरुरी हो गई है? ये बात हम इस लिए पूछ रहे है। क्यों की देश भर में पिछले कई महीनो से पैक्ड प्रोसेस फ़ूड और होटल रेस्टोरेंट आदि से खाने में जिन्दा कीड़े ,मरे हुवे कीड़े कॉकरोच ,चूहे ,छिपकली ,यहाँ तक की इंसानी उंगली तक के निकलने के विडिओ सोशल मिडिया में वाइरल हो रहे है। कुछ को फेक माना जा सकता है। या जानबूझ कर डॉक्टर्ड वीडिओ माना जा सकता है।लेकिन हर एक को नहीं।
वंदेभारत जैसी आधुनिक ट्रेनों के खाने में भी कॉकरोच ,कीड़े मिल रहे है। 18 जून 2024 भोपाल से आगरा जाने वाले भारत एक्सप्रेस में IRCTC द्वारा परोसे खाने में कॉकरोच निकला जिस पर रेलवे ने माफ़ी जरूर मांगी लेकिन कार्यवाही क्या हुई ?पता नहीं। पुणे में एक डॉक्टर की आइसक्रीम में इंसानी ऊँगली निकली। मामला हैरान करदेने वाला था। ऐसे ही गुजरात से कई विडिओ वायरल हुए जिनमे होटल रेस्टोरें के खाने में छिपकली और जिन्दा कीड़े खाने में पाए गए है।
लेकिन हर सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है।ऐसे में FSSAI पर उंगली उठना तथा स्थानीय खाद्य सुरक्षा विभाग पर उंगली उठाना जायज है। लेकिन उपभोक्ता विशेष कर पीड़ित उपभोक्ता क्या कर रहा है ? क्या रील बना कर सम्बंधित होटल रेस्टोरेंट या प्रोडक्ट का नाम रील में लेकर न्याय मिल जाता है। सम्बंधित होटल रेस्टोरेंट की पीड़ित उपभोक्ता को तुरंत क्षतिपूर्ति और माफीनामा न्याय है? रेस्टोरेंट कर्मचारियों द्वारा मारपीट ?
ये उपभोक्ता कानून व अधिकारों और खाद्य कानूनों की अवहेलना है। ऐसी घटनाओ में पीड़ित उपभोक्ता को मिली तुरंत क्षतिपूर्ति व माफीनामा संबंधित होटल और रेस्टोरेंट को भविष्य में भी ऐसी लापरवाहियां करने की छूट देती है। जिससे कोई सुधर की उम्मीद नहीं की जा सकती बल्कि यह ऐसी लापरवाही करने वालो के होंसले और बुलंद कर देती है। लेकिन क़ानूनी झमेले में कौन फंसना चाहता है। भारत का नागरिक न्याय के मुकाबले समझौता करना ज्यादा पसंद करता है।
दूसरा खाद्य सुरक्षा व उपभोक्ता कानून के लूपहोल्स होने की वजह से भी उपभोक्ता कोर्ट में चला भी जाये तो ठगा सा ही महसूस करता है। पैकेज फ़ूड का खुल्ला पैकेट सबूत नहीं माना जाता है। और न ही होटल रेस्टोरेंट के दूषित भोजन को कोर्ट में साबुत माना जाता है।
ऐसे में हर पैकेट की अनबॉक्सिंग और होटल रेस्टोरेंट में खाते समय पूरी वीडियोग्राफी की आवशयकता पड़ेगी। सरकार और FSSAI ने ऑनलाइन शिकायत की व्यवस्था तो की है लेकिन कोई त्वरित कार्यवाही नहीं होती है।और कोर्ट में सबूत के तौर पर वह संबंधित खाना या उत्पाद सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। सिवाय FSL रिपोर्ट पर ही मुकदमा चलता है। जिसे आने में महीनों लग जाते है और अधिकतर मामलों में समझौता कर,डरा कर ,या लालच दे कर केस रफा दफा कर दिया जाता है।
ऐसे में उपभोक्ता अपनी शिकायत के साथ उपभोक्ता अदालतों में जाना नहीं चाहता है। और सरकार और जिम्मेदार खाद्य सुरक्षा विभाग अपनी तरफ से कोई खास कदम नहीं उठाते। हां ऐसे विडिओ वायरल करके उपभोक्ता मात्र संतुष्ट हो जाता है की उसने कुछ तो किया।
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चाइना गर्ल और अमेरिका का नर्क।
विश्व शक्ति अमेरिका का सच। चाइना गर्ल।
डाॅ. कौशल किशोर मिश्र
“चाइना गर्ल “शब्द से चीन की लड़कियों के लिए नहीं अपितु कुख्यात चीन में बनायीं गई नशील दवा से है। जिसे पश्चिमी नशेड़ियों की आम भाषा में “चाइना गर्ल “कहा जाता है।
एल.ए. और फ़िलाडेल्फ़िया संयुक्त राज्य अमेरिका के विख्यात महानगर हैं जो अपनी कई विशेषताओं के बाद भी अमेरिका के नर्क को अपने भीतर समेटे हुये हैं। इस नर्क का नाम है “जॉम्बी ड्रग महामारी”। इस महामारी के उत्पन्न होने में जितना योगदान वैज्ञानिकों और उच्च-शिक्षितों का है उतना ही स्थानीय शासन-प्रशासन का भी रहा है।
कुछ दशक पहले परड्यू फ़ार्मेसी के मालिक रिचर्ड सैकलर ने पीड़ा-निवारण के लिए सिंथेटिक ऑपियोइड से Oxicodone नामक एक औषधि बनायी जो बाद में OxyContin एवं Roxicodone के ब्रांड नाम से बाजार में प्रस्तुत की गयी। रिसर्च ट्रायल में 82% लोगों को इसके कई साइड-इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ा जिसे फ़ार्मेसी के मालिकों और वैज्ञानिकों द्वारा छिपाया ही नहीं गया बल्कि इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की गयी।
बाजार में उतारने के लिए प्रारम्भ में 500 डॉक्टर्स के साथ फार्मेसी के लोगों द्वारा मीटिंग की गयी जिसमें से केवल 380 डॉक्टर्स ही इसे प्रिस्क्राइब करने के लिए तैयार हुए, पर शीघ्र ही इस औषधि ने बाजार में अपने पैर पसार लिए। यह बहुत ही हानिकारक पीड़ाशामक सिद्ध हुयी क्योंकि इसके सेवन से लोग इसके अभ्यस्त होने लगे थे।
आगे चलकर जब इस औषधि पर प्रतिबंध लगाया गया तो इसके अभ्यस्त हो चुके लोगों ने हेरोइन और मॉर्फ़ीन लेना प्रारम्भ कर दिया। फ़िर आयी ज़ाइलाज़िन जिसके बाद तो लॉस-एंजेल्स और फ़िलाडेल्फ़िया के लोग झुके हुये स्टेच्यू होने लगे। जॉम्बी-ड्रग-महामारी इसी ज़ाइलाज़िन का परिणाम है।
सिंथेटिक ओपियोइड बनाने में अग्रणी चीन ने चाइना गर्ल के नाम से फ़ेंटानिल का उत्पादन किया जिसे अमेरिकी लोगों ने पसंद किया। ‘चाइना गर्ल’ इस ओपियोइड का छद्म नाम है जो मॉर्फ़ीन से एक-सौ गुना और हेरोइन से पचास गुना अधिक मादक होता है। भारत में भी युवाओं को नर्क में धकेलने के लिए मारीजुआना और कोकीन का प्रचलन रहा है। उड़ता पञ्जाब अफीम और सुरा के लिये कुख्यात रहा है जबकि तेलंगाना में अल्प्राज़ोलम वहाँ के युवाओं की पसंद मानी जाती है।
तुरंत प्रभाव के लिये जिस पीड़ाशामक औषधि की खोज की गयी उसने निर्माताओं और डॉक्टर्स को मालामाल किया किंतु युवाओं को नर्क में धकेल दिया। अब तनिक बाबा रामदेव प्रकरण में अदालत के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी विचार कर लिया जाय। मीलॉर्ड मानते हैं कि कई रोगों का चिकित्सा जगत में कोई उपचार नहीं है जबकि बाबा उनके उपचार का आश्वासन देते हैं, यह बाबा का भ्रामक प्रचार है जिसके लिये चार बार क्षमायाचना करने पर भी अदालत ने उन्हें क्षमा का पात्र नहीं माना।
क्या अदालत एलोपैथी और आयुर्वेद के विद्वान हैं? अदालत ने वही स्वीकार किया जो एलोपैथी वालों ने बताया है। एलोपैथी वालों ने अमेरिका को यह बता कर कि ऑक्सीकोन्टिन बहुत अच्छी और प्रभावकारी पीड़ाशामक औषधि है, युवाओं को जॉम्बी-ड्रग-महामारी में धकेल दिया।
जबकि आयुर्वेद का तो सिद्धांत ही है “प्रयोगः शमेद् व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीर्येत्” अर्थात् “वही चिकित्सा प्रशस्त है जो व्याधि का तो शमन करे पर किसी अन्य व्याधि को उत्पन्न न करे”। पर यह संस्कृत में लिखा है और आयुर्वेद का सिद्धांत है इसलिए आप चिकित्सा के इस उत्कृष्ट सिद्धांत को स्वीकार नहीं करेंगे।
एलोपैथ दवाओं के नशे और साइड इफेक्ट को हमेशा से कम करके ही बताया जाता है। जबकि इनके साइड इफेक्ट मरीजों द्वारा भारी मात्रा में भुगते जाते है।कई शोधो में साबित हुवा डाइबिटीज की दवाओं से ब्लड कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है। और कई दवाओं से लीवर और किडनी का जबरदस्त रूप से नुकसान होता है। देश में बढ़ रहे डायलेसिस और लीवर ट्रांसप्लांट के बढ़ते मामले जीवन शैली रोगो और उनके ईलाज के लिए उपयुक्त दवाओं के साइड इफेक्ट को लेकर सार्वजानिक मंचो पर कोई चर्चा नहीं की जाती है।
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कभी हाँ कभी ना।
सोते देश को मत जगाओ यारो।
संपादक की कलम से।
हम तो चुपचाप से हाँ हाँ कर के बेबी फ़ूड, हेल्थ ड्रिंक मसाले ले ले कर शादी पार्टी बनाये जा रहे थे और विज्ञापन एजेंसी और कंपनी ने दिन भर हमें यही समझती रहीं कि हाँ हाँ यही बेस्ट फिर है तभी तो मस्त रहेगा अपना इंडिया और हम को हमारी सरकारी मशीन के सील सिक्के का ज्यादा कुछ पता भी नहीं था किन्तु अब ऐसा क्या हो गया कि किसी विदेशी धरती से न ,न की आवाज आयी कि हमको तो शक्कर खिलाई जा रही है कीट नाशको के डोज़ दिए जा रहे हैं।
और हाँ हमको तो विदेशी वैक्सीन फार्मूले ने मार डाला अब तो सब को हृदय रोग होने ही वाला है।
तो हम जो रोजमर्रा के जीवन को खा पी कर डेली हमारे विज्ञापनों में सेलिब्रिटी की हाँ से हाँ मिला कर प्रसन्न थे अब हमको किसी ने डरा दिया कि भारत में तो जहर थाली में आ गया है।
खैर अब जैसे कि हम इतना जग गए हैं कि दूध और मसाले बिल्कुल छोड़ देंगे।
न ,न हमारे घर में हमने कबसे कूटे मसाले छोड़ दिए और ये सब ख़बरें तो जैसे एक घटना होती है वैसे ही जान कर हमारे घर में पहले भी और आगे भी मसालों का खूब इस्तेमाल होगा ही। हम तो ये भी कहते हैं कि इंडिया गेट पर भी यदि ज्ञान दिया और वीडियो चलाये जाएँ तो हम तो घर के बाहर अपने चाट पकोड़ी वाले का जायका लेने जाना तो छोड़ने वाले नहीं है।
फिर हम भारत की फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री में विदेशो में प्रतिबंधित जो फ़ूड एडेटिव्स मिलाये जाते है जिनकी सुरक्षित सीमा तो कागजो में तो तय है, लेकिन वास्तविकता में अंधाधुन्द इमल्सीफायर , एडेटिव्स और आर्टिफीसियल कलर व फ्लेवर काम में लिए जाते है। उसका क्या करें। उस पर जब कोई विदेशी धरती से बोलेगा तो सुन लेंगे और कोई घटना समझ कर फिर से सेवन करने लगेंगे।
भारतीय स्ट्रीट वेंडर्स में इन जहरीले तत्वों को लेकर कोई नियम नहीं है। इतनी अधिक मात्रा में ट्रांसफेट और नकली व हानिकारक फेट का उपयोग किया जा रहा है। अब हम तो किसी बात पर हाँ हाँ ही करेंगे क्योंकि प्रजा तंत्र जो है जब जनता ठेलों पर ऐसे टूटती है जैसे कि फ्री में ठेले वाले भैया पानी पूरी खिला रहे हों। शादी समारोह का तो क्या कहना, पंडित जी के दो मुहूर्त महीने में मिलावटखोरों और जमाखोरी के लिए जैसे वरदान होते हैं।
12 से 18 साल के बच्चे एनर्जी ड्रिंक और कोल्ड ड्रिंक बिना किसी अंकुश के पी रहे है।यूरोपियन संघ और अमेरिका की ही माने तो भारत के बाजारों में प्रोसेस फ़ूड में डाले जाने वाले केमिकल्स और कई दवाएं आसानी से उपलब्ध है जो कि वहां पर प्रतिबंधित है।
क्या ये माना ही न जाए की आज के खानपान में प्रोसेस फ़ूड और पैकेज फ़ूड में मिलाये गए फ़ूड एडिटिव आपके लिए हार्ट अटैक ,ब्रेन स्ट्रोक ,और कैंसर तथा जीवनशैली रोगो को बढ़ावा नहीं दे रहे ?क्या ये माना ही न जाये की जीवन भर जिस बीमारी के ईलाज के लिए जो दवा आप खा रहे है। उसके साइड इफ़ेक्ट से भी आपको हार्ट अटैक या दिमाग में स्ट्रोक नहीं हो सकता ?
हमारे देश भोजन,दवा ,और नशा दोनों ही सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित है। और जनता अपने में ही व्यस्त है,तो ऐसे में घबराना व्यर्थ है।
सच ये है की जनता इतनी गहरी नींद या नशे में है की सिर्फ राजनीतिक मुद्दों के अलावा स्वास्थ्य पर किसी का ध्यान ही नहीं है। बोर्नविटा में जरूरत से ज्यादा चीनी है ,लेकिन कितने लोगो ने अपने बच्चो को बोर्नविटा या अन्य पैकेज हेल्थ ड्रिंक देना बंद किया ? 4 मई 2024 हिंदुस्तान अख़बार में दिल्ली हाई कोर्ट में दिल्ली में सप्लाई दूध की रिपोर्ट को लेकर खुलासा हुआ की दिल्ली में सप्लायी दूध सुरक्षित नहीं है। क्या दिल्ली वालो ने दूध पीना बंद कर दिया? हालाँकि यह खुलासा चौका देना वाला नहीं है। क्यों की यह खबर भी अख़बार में राशिफल देखने जैसे है।पढ़ता हर कोई है लेकिन मानता कोई नहीं।
जनता का खाद्य सुरक्षा के मामले में उदासीन और लापरवाह होना आने वाली दो से तीन पीढ़ियों के लिए जानलेवा संकट उत्पन्न कर सकता है। क्या अब भी आग लगने के बाद कुआँ खोदना शुरू करेंगे ?
ब्लॉग
आयुर्वेदिक औषधियों की जांच के मापदंड एलोपैथिक दवाओं जैसे क्यों ?
आयुर्वेदिक औषधियों को लेकर पुनः समीक्षा की आवश्यकता।
कौशलेंद्र मिश्र(रि.आयुष डॉक्टर)
आयुर्वेदिक औषधियों का ज्ञान भारत के प्राचीनतम ज्ञान में से एक है। जिसको हजारो वर्षो पहले ही विकसित किया जा चूका था। आयुर्वेदिक औषधियों का लोहा अब पश्चिमी देश मानने लगे है। लेकिन भारत सरकार द्वारा आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवक्ता और एक्सपाइरी डेट को लेकर कोई विशेष ज्ञान न होने की स्थिति में एलोपैथिक पद्धति द्वारा ही किया जाता है।
जगदलपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली “बस्तर पाती” पत्रिका के सम्पादक सनत जैन न्यायाधीशों से जानना चाहते हैं कि आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता की जाँच एलोपैथिक औषधियों की जाँच में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक पद्धतियों से कैसे सम्भव है?” मूलतः इंजीनियर सनत जी व्यक्तिगत चर्चा में पूछते हैं –“धोती-कुर्ते के साथ गले में टाई लटकाने का क्या औचित्य है? भारतीय ज्ञान-विज्ञान के मूल्यांकन में किन मानदंडों का व्यवहार अधिक वैज्ञानिक, उपयोगी और व्यावहारिक होना चाहिये?
सनत जी के प्रश्न सैद्धांतिक हैं जिन पर विमर्श होना ही चाहिये। हमें ज्ञान और विज्ञान के अंतर को भी समझना होगा। ज्ञान अनंत है जबकि विज्ञान भौतिक होने के कारण सीमित है। विज्ञान विनाशकारी हो सकता है पर ज्ञान सदा रचनात्मक ही होता है।
आम जनता को भी यह समझना होगा कि एलोपैथिक और आयुर्वेदिक एवं यूनानी औषधियों की निर्माण विधि और उनके घटक द्रव्यों में मौलिक अंतर है जिसके कारण इनकी सम्यक जाँच आधुनिक पद्धतियों से पूरी तरह संभव नहीं है ।
एलोपैथिक औषधियों में जहाँ किसी एक या दो रसायनों के सम्मिश्रण या किसी जड़ी-बूटी के एक्टिव प्रिंसिपल्स से औषधियों का निर्माण होता है वहीं आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों में विभिन्न प्रकार की कई जड़ी-बूटियों या रसायनों या दोनों के सम्मिश्रण से औषधियों का निर्माण होता है जिसके कारण आधुनिक पद्धतियों के मानदंडों के अनुसार उनका मानकीकरण सम्भव नहीं हो पा रहा है।
भारतीय दर्शन, सनातन विज्ञान और सनातन धार्मिक मूल्यों के मौलिक स्तम्भों पर विकसित एवं स्थापित आयुर्वेद में नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान रहते हुये औषधि निर्माण को प्राथमिकता दी जाती रही है। लोग पूर्ण विश्वास के साथ आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करते रहे हैं।
आधुनिक काल में जहाँ हम सब पतन की ओर अग्रसर हैं, प्राचीन भारतीय मूल्यों के पालन में भी हुये पतन ने आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं । मूल्यों के पतन की स्थिति में किसी भी भौतिक संसाधन को अपनाकर सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
आयुर्वेद में औषधि निर्माण को “संस्कार” माना जाता रहा है। औषधि संस्कार का अपघटन हमारे नैतिक मूल्यों के पतन का परिणाम है। आधुनिक विद्वानों ने आयुर्वेद के लिए भी एलोपैथिक मानदण्डों को अपनाते हुये इनकी अवसान तिथि (एक्स्पायरी डेट) निर्धारित कर दी है जो कि पूरी तरह अवैज्ञानिक और भ्रष्टाचार को बढ़ाने वाली ही सिद्ध होती जा रही है।
एलोपैथिक औषधियों की भी अवसान तिथि के विषय पर वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। औद्योगिक कारणों से दशकों पहले अमेरिका के डिफ़ेंस विभाग की एक शाखा में अवसान तिथि को लेकर हुये शोध के निष्कर्षों को प्रचारित नहीं किया गया जिसमें यह बात उजागर हुयी कि एक्स्पायर्ड औषधियों में अधिकांश औषधियाँ अनुपयोगी नहीं हुआ करतीं, कुछ ही औषधियाँ हैं जो एक्स्पायर्ड होने के बाद अनुपयोगी हो जाती हैं ।
अधिकांश औषधियाँ की गुणवत्ता कम हो जाती है जिसकी पूर्ति के लिए उनकी उपयोग मात्रा में वृद्धि करके वांछित लाभ लिया जा सकता है। दूसरी ओर आयुर्वेदिक औषधियों व यूनानी औषधियों के लिए अवसान तिथि निर्धारित करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग के कारण फफूँद लगने या ऑक्सीडाइज़्ड हो जाने से ये औषधियाँ निर्धारित की गयी आधुनिक अवसान तिथि से पहले भी अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी हो सकती हैं। स्पष्ट है कि घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग की जाँच की जानी चाहिए न कि औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करके समस्या से मुक्ति पाने का भ्रम सुस्थापित कर दिया जाना चाहिये!
आप नये चावल और गेहूँ की अपेक्षा पुराने चावल और गेहूँ को अधिक उपयोगी मानते आये हैं, पुरानी से पुरानी शराब को अधिक प्रभावी मानते आये हैं । इन सबकी और जड़ी-बूटियों की प्रकृति एक ही है, क्या ?आप इनकी भी अवसानतिथि निर्धारित कर देंगे?
आयुर्वेदिक औषधियों और यूनानी औषधियों के निर्माण में नैतिकता का पालन करते हुए निर्धारित घटक द्रव्यों, निर्धारित संस्कार विधि और निर्धारित तापमान का ही संयोग अपेक्षित है जिसके अभाव में उच्च गुणवत्ता युक्त औषधि का निर्माण सम्भव ही नहीं है। औषधि की अवसान तिथि निर्धारित करने की अपेक्षा उनके निर्माण की आयुर्वेदोक्त संस्कार विधि को अपनाये जाने की आवश्यकता है।
आयुर्वेदिक औषधियों को सरकार व आयुर्वेदिक औषधि को नियंत्रित करने वाली एजेंसियों को व्यापक आयुर्वेदिक ज्ञान के लिए खुद के प्रयोग व नीतियां बनानी चाहिए।जबकि अब तक आयुर्वेदिक औषधियों के एलोपेथिक विधी व मापदंडो की नकल मात्र का उपयोग होता आ रहा है।
संपादकीय
अगले जन्म मोहे कीड़ा न कीजो
होली विशेषांक
हालही में पश्चिमी देशो ने झींगुर कीड़ा(Cricket (insect) को पीस कर आटा बना लिया जिसको धरती का सबसे प्रोटीन युक्त आहार माना जाता है। अब बहुत जल्दी ही यह भारत में आ जायेगा। हालाँकि कीड़ा खाना हम भारतीयों की नैतिकता में नहीं है। लेकिन अंग्रजी बोल कर रंगबिरंगे सभ्यता से ओतप्रोत हम भारतीयों में अंग्रेज बनने की एक नैतिक होड़ जरूर है। तो हो सकता है की कुछ अति खुल्ली मानसिकता से पीड़ित बुद्धिजीवी इस दौड़ में दौड़ पड़े।
कल्पना कीजिये आपके बर्गर में कोई कॉकरोच कीड़ाआये तो शिकायत की जगह ये आपको बोनस लगे।
चाइना में तो लोग अलग से कीड़ा डीप फ्राई कर के खा जाते है।लेकिन चाउमीन और मंचूरियन की तरह कीड़े खाना फ़िलहाल भारतीयों के लिए दूर की कौड़ी लग सकता है । लेकिन यूरोप की नीतियां भारतीय नस्लों में जल्दी घर कर जाती है।
अब तक हमारी सभ्यता में कीड़ो से शहद, रेशम और लाख को ही स्वीकृति थी। लेकिन पश्चिमी देशो से आये प्रोसेस फ़ूड में हमें कोचिनियल ( लाल रंग के मादा कीड़ा का पाउडर ) जैसे खाद्य अवयव दिए जो कीड़ो से ही बनते है। लेकिन अब वो दिन दूर नहीं जब झींगुर के पाउडर को दूध में डाल कर पीना शुरू कर दे। भारत में अभी कीड़े खाने की परम्परा नहीं है।एकांत में कीड़ो को खाद्य वस्तु से निकल देना और किसी की उपस्थिति में खाद्य को ही फेंक देना हमारा स्वभाव है।
लेकिन कीड़ो को ही खाद्य बना लिया है तो कीड़ो की शामत समझो जिन कीड़ो को परमाणु युद्ध के बाद भी बचे रहने का वरदान था अब वो किसी की भूख के कारण कुछ सालो में ही अस्तित्वहीन हो जाने की आशंका बनी हुई है।
कीड़ा होना और कीड़ा होने की पीड़ा तो एक कीड़ा ही समझ सकता है।
इंसानो से पहले अपने अस्तित्व में आये ये कीड़े इंसानो के बाद भी शायद इस धरती पर रहेंगे।
लेकिन इंसान अपने अस्तित्व की शुरूवात से ही कीड़ो का दुश्मन रहा है।पहले आग से जला कर मरता था आज जहर दे कर मार रहा है।कीड़ो को मारते मारते इंसान ने धरती को ही जहरीला बना दिया है। बेचारे कीड़े जाये तो कहाँ जाये।
ब्लॉग
जानलेवा घी ,संस्कारहीन पूजा, अज्ञानी जनता , मस्त होते अफसर
हमारे देश में घी कितना जानलेवा हो सकता है। इसका अंदाजा भी आम नागरिक नहीं लगा सकता है।
अभी 24 फ़रवरी को जोधपुर की सीआईडी (CID) ने जोधपुर थाना क्षेत्र महादेव इलाके के मंडोर स्थित एक ऋषभ ट्रेडर्स नामक गोदाम में छापा मारते हुए २० हजार लीटर से भी अधिक मिलावटी घी को रंगे हाथो पकड़ा ,फ़िलहाल घी को सीज कर लिया गया है व इसकी सेम्लिंग के लिए खाद्य सुरक्षा अधिकारियो को मौके से बुलाया गया। आगे की कार्यवाही जाँच शुरू कर दी गई है।ऋषभ ट्रेडर्स गोदाम से मजदूरों व कामगारों को गिरफ्तार किया गया है। जबकि मुख्य आरोपी फ़िलहाल फरार बताया जा रहा है।
देश में हर रोज कहीं ना कहीं से नकली मिलावटी व जानलेवा घी दूध व दूध के उत्पाद पकडे जाते है। मजे की बात ये की FSSAI के राज्य व जिला अधिकारी कुर्सियां तोड़ने के अलावा कुछ नहीं करते है।
द इकोनॉमिक्स टाइम्स की एक खबर के अनुसार 69 प्रतिशत दूध व दूध के उत्पाद नकली है। साल 2021 में भारत में एक दिन में 64 करोड़ से भी अधिक दूध व दूध के उत्पादों की खपत है। जबकि असल में उत्पादन मात्र 14 करोड़ लीटर का ही था । अब जबकि नकली असली का अनुपात और भी बढ़ चुका है। लेकिन इसके आधिकारिक आंकड़े फ़िलहाल सार्वजानिक नहीं है।
साल 2021 में आगरा जिले (उ. प्र. ) में खंदौली कस्बे में मोहल्ला व्यापारियान में मृत जानवरो जैसे गाय ,भैंस , सूअर ,मुर्गियों की चर्बी को चूल्हे पर कढ़ाई में पिघला कर मिलावटी व जानलेवा घी बनाने मामला सामने आया था। इस पर भी पुलिस ने ही कार्यवाही करते हुए 100 किलो मिलावटी जानलेवा घी को जप्त किया व खाद्य सुरक्षा अधिकारी को घटना स्थल पर बुला कर सेम्पल लिए गए। इसमें करीब चार लोगो को गिरफ्तार किया गया था तथा जालसाजी व धोखाधड़ी में FSS एक्ट की धारा भी लगायी गई थी लेकिन तीन साल में अभियुक्तों के साथ क्या हुआ इसको लेकर कोई समाचार नहीं है।
अब ऐसे कारखाने दूरदराज व जंगलो और मृत पशु जिनको शहरों के बाहर डलवाया जाता है वहा अब ऐसे गौरख घंधे चल रहे हैं ।
साल 2023 में सितंबर में उत्तराखंड के उधमसिंह नगर पुलभट्टा थाना क्षेत्र की पुलिस ने एक मुखबिर की सूचना पर जानवरो की चर्बी से घी बनाने वाले कारखाने पर छापा मारते हुए 205 कनस्तर मिलावटी व जानलेवा घी जप्त किये गए थे तथा चार लोगो को गिरफ्तार भी किया गया था। इन अभियुक्तों ने बताया था कि ये पशु चर्बी मिलावटी व जानलेवा घी व वनस्पति घी बनाने वाली फैक्ट्री में सप्लाई किया करते थे।
वही मुजफ्फरनगर (उ प्र ) में 50 क्विंटल जानवरो की चर्बी को बरामद किया गया था ।
22 अगस्त 2023 दिल्ली के मोतिया खान मस्जिद के पास जानवरो की चर्बी से मिलावटी व जानलेवा घी बनाने के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट में जानवरो की चर्बी से बने घी को लेकर एक याचिका भी दायर की गई थी । मजे की बात ये है कि असामाजिक तत्वों द्वारा रिहाइशी इलाके में यह काम चल रहा था तथा आम नागरिको को बदबू बर्दास्त करनी पड़ रही थी जो कि संविधान की धारा 21 का उलंघन है।
फ़ूडमेन ने इस विषय को लेकर मोहन सिंह अहलूवालिया ( हरियाणा सरकार पूर्व कमिशनर, जंतु कल्याण बोर्ड अध्यक्ष तथा वर्तमान में ग्वाला गद्दी खेड़ा खेड़ी
जीरक पूर ,वैश्विक वैदिक प्रमुख ) से बात की जिसमे अहलूवालिया जी ने साफ तौर पर कहा कि FSSAI अभी तक बट्टर आयल और घी में फरक करना ही नहीं चाहती। FSSAI या तो अज्ञानता में जी रही है या जानबूझ कर अनजान बनी हुई है। FSSAI ने घी और बटर आयल की भी कोई परिभाषा अभी तक नहीं बताई है। मात्र फेट और कुछ मानक ही स्थापित किये है जो जानवरों की फेट और दूध की फेट में अंतर नहीं कर पाते या करना नहीं चाहते। बाजार में उपलब्ध घी को वैदिक रूप से पूजा योग्य समझ कर भोली जनता धर्म कर्म में इस्तेमाल कर रही है। जनता अंधी हो कर इसके दिए त्योहारों में जलाती है चाहे इसमें पशु चर्बी मिली हो।
भारतीय ज्ञान में बटर आयल जैसी किसी भी उत्पाद की जगह नहीं है, ये केवल विदेशी माल को देश में खपाने के लिए घी बनाने के काम में उपयोग होता है।
भारत सरकार को इस तरफ और ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है। केवल विज्ञान पढ़े लोग या दूसरे विषय के लोग ही नहीं, काबिल व फ़ूड साइंस संबंधी ज्ञानी लोगो को FSSAI में जगह मिलनी चाहिये। फ़िलहाल FSSAI एक कॉर्पोरेट संचालित संस्था है। जिसकी प्राथमिकता उधोगो को फायदा पहुंचना होता है ना कि आम नागरिक के स्वास्थ्य को लेकर काम करना । आम आदमी खान पान की सुरक्षा को लेकर भारत मे राम भरोसे ही है।