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फ़ूड लेबल : इ कोडिंग के सच

खाद्य रंजक -पीला ,टेट्राज़िन (Tetrazine ,Yellow -5 )E-102

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खाद्य रंजक पीला या सुनहरा रंग देने के लिए टेट्राज़िन का उपयोग होता है। टेट्राजिन सिंथेटिक यानि रसायनिक होता है। इसका उपयोग आइसक्रीम ,शीतल पेय ,सोडा पेय,केन्डी टॉफी  ,आदि खाद्य व पेय प्रदार्थो में पीले रंग के लिए होता है। टेट्राज़िन भी उन्ही खतरनाक कृत्रिम खाद्य रंजको में से एक है जिसको कैंसरकारक माना जाता है। हर कृत्रिम रंग की तरह टेट्राजिन से भी एलर्जिक और  शरीर के प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करने वाले तत्वों में से है। टेट्राज़िन से भोजन के चय अपचय या पाचनतंत्र पर भी प्रभाव डालता है।
टेट्राज़िन के प्रभावों को देखते हुवे अमेरिका में फ़ूड लेबल पर टेट्राजिन को विशेष रूप से लिखने येल्लो 5 व FDNC  और एलर्जिक होने की चेतावनी छापना जरुरी होता है। ठीक ऐसे ही यूरोप के देशो में टेट्राज़िन को लेकर दिशानिर्देश जारी है।
भारत में टेट्राज़िन का उपयोग लगभग हर पीली खाने पीने और श्रृंगार साधनो में किया जाता है।  भारत में टेट्राज़िन से होने वाले दुष्प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
फ़ूडमेन की पाठको को सलाह है की किसी भी खाद्य वास्तु के पैकेट पर टेट्राज़िन yello-5 या E-102 नजर आये तो उस उत्पाद को सावधानी और सर्विंग साइज़ के अनुसार बहुत जरुरी हो तो ही उपयोग में लाये।
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कंज्यूमर कार्नर

एंटीऑक्सीडेंट

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antioxidants

क्या होते है एंटीऑक्सीडेंट ? कैसे करते है काम ?

एंटीऑक्सीडेंट हम हर रोज किसी न किसी रूप में सुनते व उपभोग करते है

एंटीऑक्सीडेंट हम हर रोज किसी न किसी रूप में सुनते व उपभोग करते है। लेकिन एंटीऑक्सीडेंट के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती है।  एंटीऑक्सीडेंट को समझने के लिए ऑक्सीडेंट को समझना होगा। “ऑक्सीडेंट”  ऑक्सीजन के वह अणु होते है जो  किसी भी कारण से इलेक्ट्रॉन मुक्त या अपने इलेक्ट्रॉन खो देते है।  तथा किसी भी अणु के साथ जुड़कर या उसके इलेक्ट्रॉन अवशोषित कर लेते है।

जिससे एक नए तरह के अणु बन जाता है। तथा जिस अणु से इलेक्ट्रॉन अवशोषित हुवा है वो किसी और अणु से इलेक्ट्रॉन की पूर्ति करता है और यह क्रम चलता रहता है।ऑक्सीडेंट का एक मुख्य प्रभाव यह है कि वे मुक्त कण(फ्री रेडिकल्स ) उत्पन्न कर सकते हैं। मुक्त कण वे होते हैं जिनमें अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन होते हैं और वे शरीर में नुकसान पहुंचा सकते हैं, क्योंकि वे कोशिकाओं के अंदर विभिन्न प्रकार के कार्यों को प्रभावित कर सकते हैं।इन्ही तत्वों को अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन दे कर या ले कर इन अणुओं को निष्क्रिय करने वाले पदार्थों को ही एंटीऑक्सीडेंट कहा जाता है 

एंटीऑक्सीडेंट


इसलिए, हमारे शरीर में ऑक्सीडेंट के प्रभाव को नियंत्रित करना महत्वपूर्ण है। अपने आहार में एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थों को शामिल करके आप अपने शरीर को ऑक्सीकरण के नकारात्मक प्रभावों से बचा सकते हैं और एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

ऑक्सीडेशन से क्या होता है _  सरल भाषा में कहे तो हमारे वातावरण में ऑक्सीजन भरपूर है और हर स्थान पर है।  ऑक्सीजन के कण बहुत ही प्रतिक्रियात्मक होते है। तथा अवसर मिलते ही दूसरे तत्वों के साथ प्रतिक्रिया आरम्भ कर देते है। जिसे ऑक्सीडेशन कहते है। आपने ने देखा होगा की  सेव को काट कर रखने पर उस पर  धीरे धीरे  हल्का कालापन आ जाता है। यानि की हवा में मौजूद ऑक्सीज़न सेव के तत्वों में ऑक्साइड बनाना शुरू  कर देती है और कुछ देर बाद कटा हुवा सेव खाने के लिए उपयुक्त नहीं रहता है।

antioxidants

वातावरण  वाले इसी प्रक्रिया को रोकने के लिए एंटीऑक्सीडेंट  तत्वों का उपयोग होता है। 

तैयार उत्पाद की पैकिंग भी ऑक्सीडेशन को रोकती है। लेकिन सावधानी और उत्पाद की सुरक्षा हेतु एंटीऑक्सीडेंट का उपयोग होता है। विशेष के द्रव्य उत्पादों व वसा युक्त उत्पादों में एंटीऑक्सीडेंट तत्वों का उपयोग होता है। उत्पाद में खाद्य अवयवों की उपस्थिति भी उत्पाद को बदल सकती है। एंटीऑक्सीडेंट  उन अवयव की उपस्थिति में भी उत्पाद को ख़राब होने से बचाते है। एक और तथ्य ये भी है की एंटीऑक्सीडेंट प्राय कोई न कोई विटामिन या पोषक तत्व होते है। अधिकतर वसा संबंधी उत्पादों जैसे कॉस्मेटिक क्रीम या लोशन ,तेल घी मक्खन आदि में   में विटामिन ई व सी का उपयोग होता है। 

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एंटीऑक्सीडेंट हमारे शरीर के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए जितना हो सके उतना प्राकृतिक रूप से विटामिन व अन्य पोषक तत्वों का उपयोग करना चाहिए। इन तत्वों की अधिकता भी शरीर के लिए नुकसानदायक भी हो सकती  है। अधिक मात्रा में पोषक तत्व शरीर की उन कोशिकाओं के लिए भी पोषण देने का काम करते है। जिसकी जरूरत शरीर में नहीं होती। और कई तरह की बीमारियां उत्पन्न हो जाती है। 

 एंटीऑक्सीडेंट

हाल ही में हुए कई पश्चिमी देशो के शोध और रिसर्च से पता चला है की अत्यधिक या जरूरत से ज्यादा एंटीऑक्सीडेंट कैंसर ,पेट के कैंसर ,बवासीर ,जैसी कई पेट सम्बन्धी कैंसर के कारक भी हो सकते है। तथा कई तरह से शारीरिक बीमारियों के लिए जिम्मेदार हो सकते है। कैंसर के इलाज में काम आने वाली कई दवाएं एंटी एंटीऑक्सीडेंट व एंटी विटामिन होती है।

गठिये के इलाज में भी एंटी विटामिन दवाओं का उपयोग किया जाता है। आज कई एंटीऑक्सीडेंट दवाओं का प्रचार प्रसार अखबारों और ब्लॉग व इंटरनेट के माध्यम से किया जा रहा है। ऐसे में आप को कौन सा एंटीऑक्सीडेंट लेना चाहिए इसके लिए आप को अपने चिकित्सक से परामर्श जरूर करना चाहिए। 


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कंज्यूमर कार्नर

केराजीनन (carrageenan) – E-407-407a

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Carrageenan

केराजीनन से होने वाली पेट की गड़बड़ी को केराजीनन  ब्लॉट कहा जाता है।

 केराजीनन (  carrageenan )    किसी भी प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ में चिपचिपाहट बढ़ाने के लिए  केराजीनन  ( carrageenan  ) का उपयोग किया जाता है। यह खाद्य सामग्री सूची में पैकेज्ड खाद्य लेबल पर E-407-407a के रूप में दिखाई देता है। लगभग 50% प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में कैरेजेनन मिलाया जाता है।

यहां तक कि धुंध पैदा करने वाले प्रोटीन को हटाने के लिए इसका उपयोग बीयर और वाइन में भी किया जाता है।   केराजीनन  का उपयोग बेकरी और बेकरी क्रीम, बिस्कुट, ब्रेड आटा गूंथने, टॉफी, चॉकलेट, आइसक्रीम, टूथपेस्ट, दवाओं में सहायक पदार्थ के रूप में किया जाता है। क्योंकि इससे शरीर को कोई सक्रिय योगदान नहीं मिल पाता है. लेकिन एक मात्रा या एक समय के बाद कई लोगों में इसके गंभीर परिणाम देखने को मिले हैं।

केराजीनन

केराजीनन  समुद्री लाल शैवाल (चैन्ड्रस क्रिस्पस /  केराजीनन   मॉस) से तैयार किया जाता है।  केराजीनन  तीन प्रकार के होते हैं – कप्पा, आयोटा (नरम जेल के लिए), और लैम्ब्डा (जो जेल नहीं बनता और डेयरी उद्योग में उपयोग किया जाता है)। नकली डेयरी उत्पादों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। सामान्य परिस्थितियों में, केराजीनन   का अनुशंसित दैनिक सेवन शरीर के वजन के प्रति किलोग्राम 75 मिलीग्राम है। यानी एक सामान्य व्यक्ति जिसका वजन 75 किलोग्राम है, के लिए 5-6 ग्राम से अधिक कैरेजेनन युक्त भोजन खाना सुरक्षित है।

इससे अधिक और लगातार खाने से कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं।  केराजीनन  को जिलेटिन के  शाकाहारी विकल्प के रूप में देखा जाता है। लेकिन अपनी स्थापना के बाद से ही केराजीनन  विवादों में घिरा रहा है। कई बार यह उत्पाद पर प्रदर्शित भी नहीं होता है। कैरेजेनन का वैश्विक बाजार 2021 में 66 बिलियन रुपये से अधिक होने की उम्मीद है और यह हर साल 5.8 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है।

digestion system

केराजीनन   का उपयोग 200 वर्षों से किया जा रहा है। इसे 1935 में एक खाद्य सामग्री के रूप में मान्यता दी गई थी। हालांकि, समय के साथ प्रयोगों और परीक्षणों के माध्यम से, कैरेजेनन को मात्रा और सीमा में उपभोग के लिए सुरक्षित माना जाता है।केराजीनन से होने वाली पेट की गड़बड़ी को केराजीनन  ब्लॉट कहा जाता है। जो की केराजीनन  की अधिक मात्रा का शरीर में पहुंचे से होता है। नौजवानो और बच्चो में आइसक्रीम और डब्बाबंद फलो के ज्यूस का काफी चलन है। जिसमे केराजीनन की मात्रा होती है।  यहाँ तक की कई डेयरी उधोग व पैकेज्ड दूध बेचने वाली कम्पनी भी दूध को गाढ़ा दिखाने और मिलावट को छुपाने के लिए भी केराजीनन का उपयोग करती है 

shop

चूहों पर किए गए कई परीक्षणों में चूहों में आंतों का कैंसर, प्रजनन क्षमता में कमी, वजन बढ़ना आदि पाया गया। कई खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि  केराजीनन  आंतों में सूजन बढ़ाता है। केराजीनन के लगातार सेवन से आंतों का कैंसर, वजन बढ़ना, मधुमेह हो सकता है। और प्रजनन अंगों में कमजोरी आती है। कुछ खाद्य विशेषज्ञ खाद्य सूची से कैरेजेनन को हटाने की वकालत करते हैं। क्योंकि केराजीनन  शरीर को कोई फायदा नहीं पहुंचाता।

डिब्बाबंद खाद्य उद्योग ने हमेशा किसी उत्पाद की सामग्री सूची को छिपाने की कोशिश की है। या तो किसी उत्पाद का उल्लेख ही नहीं किया जाता या अंतरराष्ट्रीय कोडिंग या बेहद वैज्ञानिक नामकरण का सहारा लेकर ग्राहक को अंधेरे में रखा जाता है। और उत्पाद में खाद्य सामग्री की मात्रा ही छुपी होती है। जिसके कारण ग्राहक को खाद्य सामग्री की कथित सुरक्षित मात्रा की जानकारी नहीं हो पाती है और ग्राहक को मजबूरी में स्वास्थ्य एवं दवा उद्योग की ओर जाना पड़ता है।

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हमारे रोज के खान पान में ऐसे कई तत्व है। जिनकी कुछ मात्रा सेवन के लिए सुरक्षित होती है। लेकिन सिमित मात्रा से अधिक ये खाद्य अवयव नुकसान पंहुचा सकते है। लेकिन हमारी लापरवाही और अनदेखी के चलते हम रोज ही सिमित मात्रा की सीमा तोड़ते रहते है और बीमारियों का शिकार हो जाते है। 

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ब्लॉग

चीनी नहीं कृत्रिम मिठास है खतरनाक

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हम भारतीय ही थे जिन्होंने गन्ने से चीनी बनाने के विज्ञान की शुरुवात की थी। हम भारतीयों ने ही 350 ईस्वी  में गुप्त वंश के दौरान ही चीनी को क्रिस्टलीकरण करने की खोज कर ली थी।हालाँकि कई भारतीय ग्रंथो और धार्मिक किताबो में चीनी और मिश्री ,खाण्ड और गुड़ का जिक्र  मिलता है। यानी की हम भारतीय सदियों से चीनी खाते आये है। और चीनी से होने वाले रोगो की भी जानकारी हमारे इतिहास में दर्ज है।विशेष रूप से “मधुमेह”।लेकिन आज उसी चीनी को लेकर एक अलग ही कहानी सुनाई जा रही है। बतायी जा रही है।पिछले सात दशकों से हम भारतीयों व विश्व भर में डायबिटीज के बढ़ते प्रकोप में चीनी को ही जिम्मेदार बता दिया जाता है। जो की आधा सच है।  

bournvita

कुछ दिनों पहले रेवंत हिमतसिंग्का के बोर्नविटा में कितनी चीनी है का वीडियो वायरल हुवा था। जिसमे रेवंत ने बोर्नविटा में कितनी चीनी है का खुलासा किया। हालाँकि बोर्नविटा के नोटिस पर रेवंत ने सार्वजानिक माफ़ी माँग ली। जो की अभी भी संदिग्ध है। तथा एक बार फिर से रेवंत ने अपने वीडियो शेयर करने शुरू कर दिए है।रेवंत की तरह और भी कई लोग उत्पादों में चीनी का विश्लेषण करने लगे है। जो की एक अच्छी शुरुवात है जनता द्वारा उत्पादों की सामग्री का विश्लेषण खाद्य सुरक्षा व प्रोसेस फ़ूड इंडस्ट्री से होने वाली जीवनशैली बीमारियों के विरुद्ध एक मिल का पत्थर साबित हो सकता है। 

लेकिन इसमें चिंता का विषय चीनी को लेकर भ्रम की स्थिति है। जिसे सीधा डाइबिटीज से जोड़ कर देखा जाता है। जबकि यह सच्चाई का एक पहलू मात्र है।इस बात में कोई  शक नहीं की चीनी डायबिटीज के कारणों में से एक कारण हो सकता है। लेकिन सिर्फ चीनी ही डायबिटीज का कारण नहीं हो सकती है। यह भ्रम प्रोसेस फ़ूड व दवा बनाने वाली व सुगर फ्री बनाने वाली कम्पनीज का सयुक्त अजेंडा है। विशेष रूप से पश्चिमी व यूरोपियन देशो में चीनी को बदनाम करने और कृत्रिम मिठास के तत्वों से ध्यान हटाने के लिए कथा कथित “सुगर माफिया”,शुगर इंडस्ट्रीज आदी नामो का उपयोग किया जाता है।

जबकि सच्चाई ये है की 1950 के दशक के बाद से ही प्रोसेस फ़ूड में कृत्रिम मिठास (चीनी) धीरे धीरे अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे। और आज ऐसा दौर है की लगभग हर मीठा प्रोसेस फ़ूड कृत्रिम मिठास के साथ ही आता है।तथा डाइबिटीज का कारण बनता है।  लेकिन बदनाम चीनी को ही किया जाता है। 

इसलिए अगली बार जब भी किसी उत्पाद की सामग्री देखे तो चीनी की मात्रा के साथ साथ कृत्रिम मिठास के अवयव को भी पहचानना सीखे। अधिक जानकारी के लिए पढ़े 

मीठे जहर : वैकल्पिक स्वीटनर (Sweetener ) – E -950-E -969
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फ़ूड लेबल : इ कोडिंग के सच

पैकेट की सामग्री के हेर फेर: MSG(मोनोसोडियम ग्लूटामेट)

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जैसा की हम पिछले लेखो में बता चुके है की मोनोसोडियम ग्लूटामेट या अजीनोमोटो ( MSG-,E -621 ) हमारे दिमाग और स्वाद व तंत्रिका तंत्र के लिए कैसे खतरनाक होता है।और किस तरह से ये हमें खास खाद्य पदार्थ के प्रति आकर्षित या कहे की खाने का गुलाम बनाता है। लेकिन इसकी खाद्य में एक सीमा तय होती है। ई-कोड्स को समझने वाले तुरंत ही सामग्री लिस्ट में MSG को पढ़ लेते है। लेकिन सीमित मात्रा की पाबन्दी के चलते ये खाद्य निर्माता चोर रस्ते या कानूनों के लूप हॉल का फायदा उठाते हुवे MSG को छुपाते हुवे और MSG से बने या MSG जैसे तत्वों का उपयोग धड़ल्ले से करते है। इनको कभी ई-कोड में तो कभी इनके वैज्ञानिक नामों से पैकिंग की सामग्री सारणी में दिखाया जाता है। जिनको समझ पाना या इनके ई-कोड को याद रख पाना किसी महामानव के बस की बात है। आम आदमी इतना ध्यान नहीं रख पाता है।

जैसा की MSG की खाद्य सीमा तो तय है ठीक उसी तरह MSG की तरह के अन्य प्रदार्थो की तय सीमा होती है। लेकिन कितने अवयव डाले जाये उसकी कोई सीमा नहीं है। खाद्य उत्पादक इसी का फायदा उठा कर तय सीमा में कई तत्व एक साथ डाल कर अपने उत्पाद की बिक्री बढ़ाने और उपभोक्ता को आदी बनाने का काम बेखौफ और धड़ल्ले से किये जा रहे है। जिसका खामियाजा आपको और आपके बच्चो को भुगतना पड़ रहा है।
MSG और उसके अन्य खाद्य अवयव लगातार इस्तमाल करने से विशेष कर छोटे बच्चो में इनके स्वाद को लेकर एक आकर्षण बन जाता है। जो बाद में अभिभावकों की मज़बूरी।

इससे बच्चो में अन्य खाद्य प्रदार्थो में अरुचि ,पेट संबंधी बीमारिया ,दस्त उल्टी। तथा वजन का ना बढ़ाना ,चिड़चिड़ापन व उदासीनता बढ़ जाती है। साथ ही बच्चो को त्वचा संबंधी दाद फुंसिया आदि निकलती रहती है। बच्चो में अन्य खाद्य की अरुचि ही आगे चलकर कई तरह के खाद्य प्रदार्थो की एलर्जी का रूप ले सकती है। इसलिए किसी भी पैकेट पैक खाद्य सामग्री को ध्यान से पढ़े तथा जहाँ पर भी टेस्ट इन्हांसर लिखा हो तो तुरंत इंटरनेट के माध्यम से उक्त प्रदार्थ का नाम या कोड की जानकारी जरूर ले कर अपने फैसले लेवे।आपकी ये छोटी सी अनदेखी आपको या आपके अपनों को गंभीर बीमारियों के तरफ ले जा सकती है।

MSG और MSG जैसे सम्बंधित प्रदार्थो की लिस्ट निम्न है
E -621 , E -622 ,E -623 ,E -624 ,E -625 E -626 ,E -627 ,E -628 ,E -629
E -630 ,E -631 E -632 ,E -633 ,E -634 E -635

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पॉलीग्लिसेरोल ईस्टर ऑफ़ फैटी एसिड ( Poly glycerol Ester of Fatty Acid ) E -475

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पॉलीग्लिसेरोल ग्लिसरॉल फ़ूड इंडस्ट्री में पायसीकारक ( Emulsifier) के रूप में उपयोग में होता है। प्राय: पायसीकारक  दो विपरीत तत्वों को मिलाने या एक दूसरे में निलंबित अवस्था में रखने के काम आता है। आमतौर पर पॉलीग्लिसेरोल दोनों माध्यम वनस्पतीय व जंतु आधारित वसा में से एक या दोनों का ही उपयोग करके बनाये जाते है। खाद्य उधोग में इसको गणितीय भाषा में E -475 के रूप में लिखा जाता है। इसका उपयोग केक की क्रीम व बिस्किट क्रीम ,आइसक्रीम व गीले व नम रहने वाले खाध उत्पादों में किया जाता है।
पॉलीग्लिसेरोल विभिन्न यौगिकों और रूप में हो सकता है लेकिन इसका प्राथमिक उपयोग पायसीकारक  के रूप में ही किया जाता है। पॉलीग्लिसेरोल  वसा और अम्ल के यौगिकों के रासायनिक क्रियाओ द्वारा प्राप्त किया जाता है। जिसका मुख्य घटक ग्लिसरीन होता है। पॉलीग्लिसेरोल को समझने के लिए पहले ग्लिसरीन ( E -422 ) को समझना पड़ेगा।
ग्लिसरीन एक कार्बनिक योगिक है। जो कि  अत्यधिक ताप पर तेल व वासा को मिलाकर व कई रासायनिक व जैविक प्रक्रियाओ से बनता है। ग्लिसरीन बनाने के लिए वासा वनस्पती आधारित व जंतु आधारित व दोनों ही हो सकती है।  ग्लिसरीन की कभी न सूखने और सामान्य तापमान में एक ही अवस्था में बने रहने के गुण के कारण इसको कई अम्लों और यौगिकों के साथ क्रिया कर कई तरह के खाद्य अवयव विशेषकर पायसीकारक  तत्वों का निर्माण किया जाता है।
ग्लिसरीन को अंतरास्ट्रीय स्तर पर कुछ अवयवों को हलाल प्रमाणपत्र मिला हुवा है। किन्तु इसको पूर्णतया वनस्पती आधारित नहीं कहा जा सकता है।
ठीक इसी तरह से पॉलीग्लिसेरोल को भी वनस्पती आधारित नहीं कहा जा सकता है।
पॉलीग्लिसेरोल और ग्लिसरीन को सुरक्षित खाध अवयवों में से एक माना गया है जिसका शरीर पर सीधे तौर  पर कोई नुख्सान नहीं होता है।  लेकिन अभी हाल ही के कई रिसर्च एजेंसियों ने इन तत्वों के दीर्धकालीन प्रभाव में मोटापा होने की बात सामने आई है। वही कुछ इसको ह्रदय की बीमारी से भी जोड़ कर देखा जाता है। मोटापे में इन तत्वों की जिम्मेदारी सीधे तौर पर न हो कर एक घटक के रूप में देखी जा सकती है , बाजार में रेडीमेड फ़ूड उत्पादों पायसीकारक  तत्वों से बच्चो में मोटापा आज भारत ही नहीं पुरे विश्व की समस्या है।
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फ़ूड ब्लीचिंग एजेंट ,धवलीकारक ( भाग 3 )

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फ़ूडमेन हमेशा से घरेलु आटा चक्की या मोहल्ले के आटा चक्की की वकालत इसीलिए करता है।
गेहूं साफ़ कर के भले ही गेहूं की किस्म और गुणवक्ता में कोई खास परिवर्तन तो नहीं आएगा लेकिन इतनी मिलावट और रसायनो में से कुछ से तो बचा ही जा सकता है।

 धवलीकारक या सफेदी तत्वों के बारे में हम पिछले 2 लेखो से लगातार जानकारी दी गई है। जिसमे अभी तक आटा (पावडर ) को सफ़ेद करने के तत्व जो की आटा सूजी मैदा पनीर व दही को सफ़ेद करके के काम में लिए जाते है उनका जिक्र किया गया है।
इस सीरीज  में बेंज़ोयल पेरोक्साइड ( Benzoyal Peroxide/Orgenic Peroxide  ) E -928  तथा पोटैशियम ब्रोमेट ( Potassium Bromate) E -924 के बारे में बता चुके है जो सर्वाधिक काम में लिए जाते है।
 इसके अलावा पीसे हुये आटे और बेकरी उद्योग में काम आने वाले धवलीकारक व गुंथे आटे यानी डोव को व बेकरी उत्पादों के रूप को संसाधित करने के लिए निम्न रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है
कैल्शियम पेरोक्साइड (Calcium Peroxide E-930) को आटे  के धवलीकरण व बेकरी उत्पादों में डोव कंडीशनर के रूप में भी काम लिया जाता है जिसकी तय मानक आधार 75 पीपीएम तक की है।इसकी अधिकता से अस्थमा ,त्वचा की एलर्जी ,व पाचन तंत्र के विकार उत्पन्न होते है।
क्लोरीन (Chlorine E-925 )क्लोरीन डाइऑक्साइड (Chlorine dioxide E-926) क्लोरीन का उपयोग पानी को साफ करने व कीटाणु मुक्त करने के लिए किया जाता है। क्लोरीन एक धवलक भी है जिसका इस्तेमाल कपड़ा उद्योग में भी किया जाता है। इसका उपयोग आटे ,मैदा ,सूजी ,साबुत दाना ,पनीर अदि में भी किया जाता है ,इसकी अधिकता से रक्तचाप बढ़ जाता है। सोडियम क्लोराइड यानी नमक क्लोरीन का ही एक योगिक है। रक्तचाप या ब्लड प्रेशर बढ़ने पर चिकित्सक नमक कम करने के लिए कहता है। ऐसे में क्लोरीन युक्त आटा मरीज के लिए कितना घातक हो सकता है। इसकी कल्पना ही की जा सकती है
अज़ोड़िकार्बोनामाइड ,(Azodicarbonamide E -927a) अज़ोड़िकार्बोनामाइड को प्रदार्थ को फुलाने के काम में लिया जाता है। इसे योगा मेट एजेंट भी कहते है। इसका उपयोग भी धवलक के रूप में व गुंथे आटे के डोव को फुलाने के काम में लिया जाता है ,इसलिए इसका सर्वाधिक उपयोग बर्गर ,पिज्जा ,ब्रेड व बेकरी उधोग में लिया जाता है। इसके कई देशों ने नकारात्मक प्रभाव को देखते हुए प्रतिबंधित किया हुया  है। भारत में इसको लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
भारतीय पीसे पिसाये  आटे की गुणवत्ता हमेशा से हाशिये पर रही है। नैतिकता और मानवता से विपरीत आटे को दूध जैसा सफ़ेद बनाने के तत्व मिला कर बेचा जा रहा है।
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पाइरोलिग्नियस एसिड: धुएं की कृत्रिम महक ( तरल स्मोक )

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फ़ूडमेन की रिसर्च डेस्क से

अभी तक इसका कोई ई कोड नामित नहीं है। पाइरोलिग्नियस एसिड को लेकर कोई भी वैश्विक रूपरेखा ,व नियम कानून नहीं है। हर देश में इसके अलग अलग नियम व अलग अलग पदार्थों की छूट या पाबंदी है। आमतौर पर भारतीय शराब व अन्य खाद्य उत्पाद में इन कृत्रिम धुऐ की  महक और स्वाद को आर्टिफीसियल कलर लिख कर उसका वर्ग ( CLASS ) लिख कर इतिश्री कर ली जाती है। जिससे इसके बारे में खोज बीन कर पाना मुश्किल हो जाता है। हमें हमारे खाने पीने  में क्या है जानने का हक़ है उसे गूढ़ भाषा और अपने शब्दों में घुमा फिरा कर गुमराह करना हमारे अधिकारों का हनन है। फ़ूडमेन आपके इसी अधिकार की वकालत करता है।
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धुएं  की महक हमारे बहुत से भोजन की पहचान है
दरअसल में मानव विकास और उसके भोजन के विकास का विकास साथ साथ हुया  है। पहले इंसान कच्चा मांस खाता था। फिर आग पर भून कर खाने लगा।
जैसे भुने हुवये  मांस के स्वाद को प्रयोगशाला में विकसित कर  रासायनिक  टेस्ट बढ़ाने वाले तत्व बनाये गए है । ठीक वैसे ही भुने हुये  या कोयले पर जले हुवे भोजन की महक को  भी हमारे शरीर ने मानव  विकास की शुरुवात में भोजन की महक एक प्रतीक मानता है।  जो हमारे जीन्स में है जिसका उपयोग हम करते आये हैं।
 
 लेकिन अब रासायनिक तत्वों का इस्तेमाल कर धुंए का स्वाद व खुशबु दी जाती है। और इन रसायनो को पायरोलिग्नीयस एसिड ,या लकड़ी का सिरका कहते है।
 पायरोलिग्नीयस एसिड अपने आप में कोई तत्व न हो कर एक तरह के तत्वों का समूह है। जिसमे धुएं  की महक को तरल करने के लिए ,परम्परिक तरीको से लेकर  अत्याधुनिक अश्वन व संश्लेषण संयंत्र में मांग अनुसार उत्पादन किया जाता है। जिससे खाद्य उत्पादों में स्मोकी व बारबेक्यू महक और स्वाद दिया जाता है। लेकिन यह चारकोल ,चारकोल और तार या डामर से बनाया जाता है। जिसका स्वभाविक रंग भूरा हो जाता है। इसलिए इसे शराब उद्योग विशेष कर विस्की ,स्कॉच ,रम व भूरी दिखने वाली शराब में रंग व महक के लिए किया जाता है।
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शराब को बनाने और उसमे धुये  की महक लाने और शराब से अशुद्धियाँ दूर करने के लिए शराब को लकड़ी के अंदर की तरफ जले हुवे ड्रम में महीनो तक रखा जाता था जिससे उनमे कुदरती धुवे के स्वाद के साथ साथ अशुद्धियाँ भी दूर हो जाती थी। लेकिन वर्तमान परिपेक्ष में इतना समय और इतनी मानवीय मेहनत हर किसी शराब उधोग के लिए संभव इस लिए इन सस्ते और तुरंत काम में आने वाले  पायरोलिग्नीयस एसिड का उपयोग कर ग्राहक को भ्रमित कर दिया जाता है।
 
 पाइरोलिग्नियस एसिड मानव पाचन तंत्र में पच नहीं पाते और आंतों को भी प्रभावित करते है। शराब में इनका उपयोग अधिक होता है। इसलिए विस्की  व अन्य भूरे रंग की शराब के  नियमित उपभोक्ताओं को काला मल आने की शिकायत होती है। जिसका कारण  पाइरोलिग्नियस एसिड तथा चारकोल व चारकोल से बने रंग और महक हो
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खाद्य रंजक करक्यूमिन -E -100 (Curcumin )

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कृत्रिम रूप से पेट्रोलियम व अन्य रसायनों से भी तैयार किया जाता है करक्यूमिन

करक्यूमिन खाद्य रंजक है जो पीले रंग के लिए तथा अम्लीय व रासायनिक प्रतिक्रिया से उत्पन्न लाल रंग के लिए  काम में लिया जाता है। प्राकृतिक रूप से इसको हल्दी ( Turmeric ) से प्राप्त किया जाता है जिसे खाद्य की गणितीय भाषा में E100 में लिखा जाता है जो खाद्य गणितीय सूची में सबसे पहले आता है।
करक्यूमिन
करक्यूमिन का नाम हल्दी के वनस्पतीय नाम  ( Curcumin Longa ) से ही लिया गया है। लेकिन यह जरुरी नहीं की इसे प्राकृतिक हल्दी से ही बनाया गया है। इसे कृत्रिम रूप से पेट्रोलियम व अन्य रसायनों से भी तैयार किया जाता है। वही इसका उपयोग हल्दी व मिर्च  पाउडर की मिलावट में भी किया जाता है।
करक्यूमिन को हल्दी से निकालने के लिए रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करके प्राप्त होता है। भारत में हल्दी को पीस कर ही काम में लिया जाता है। तथा आयुर्वेद में हल्दी की उपयोगिता को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसलिए खाद्य सामग्री में इसको E -100 की जगह करक्यूमिन लोंगा लिखा जाता है जबकि यह होता करक्यूमिन है। जो की रासायनिक प्रक्रिया द्वारा संशोधित होता है।
करक्यूमिन
संशोधित व कृत्रिम करक्यूमिन शरीर द्वारा आसानी से अवशोषित नहीं होता है। जिससे यह भी शरीर के पाचन तंत्र में गड़बड़ी करता है। तथा इससे एलर्जी व अन्य शारीरिक जोखिम बढ़ जाते है जो अन्य खाद्य रंजको से होता है। प्राकृतिक रूप से मिलने वाली हर चीज पैकेट में प्राकृतिक हो यह जरूरी नहीं है। पैकेट में बंद कोई भी खाद्य वस्तु बिना हानिकारक रसायन के होना लगभग नामुमकिन है
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फ़ूड लेबल : इ कोडिंग के सच

ब्रिलियंट ब्लू  (Brilliant blue FCF  ) – E -133

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ब्रिलियंट ब्लू 

ब्रिलियंट ब्लू -कृत्रिम रंजक हमारे जीवन बदरंग किये हुये  है।

नीले रंग से हमारा आकर्षण और उत्सुकता मानव जीवन की शुरुआत से ही है। आसमान का नीलापन हो या नीला समंदर , नीला तालाब हो या झील ,या झील सी नीली आँखे हो।
बिना कलर के फ़ूड प्रोसेसिंग अधूरी है , ग्राहक को नहीं आकर्षित कर पाती।
 
प्रोसेस फ़ूड इंडस्ट्री में नीला रंग कुदरती नहीं होता है। इसके लिए ब्लू डाई या ब्रिलियंट ब्लू  E -133 का उपयोग होता है। उत्पाद की सामग्री में इसको E -133 ,FD&C Blue no 1,Acid blue ,food blue आदि  से लिखा या दर्शाया जाता है। ये खाद्य नीला रंग पूर्णतया कृत्रिम व सिंथेटिक होता है। जो शरीर में किसी भी रूप से स्वीकार्य नहीं होता है।
ब्रिलियंट-ब्लू
फिर भी 5% तक आंतो और जीभ द्वारा ये रक्त की मुख्य धारा में चला जाता है जो की हानिकारक है शेष 95% शरीर द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
 
ये नीला रंग आइस क्रीम, सोडा ड्रिंक ,फ्रूट ज्यूस ,जेम जैली ,माउथवॉश ,सेनेटाइजर ,केंडी व उन सभी खाद्य उत्पाद जिनका रंग चटक नीला या हल्का नीला होता है। ब्रिलियंट ब्लू में  टारट्रेजिन मिला कर हरे रंग को बनाया जाता है। ब्रिलियंट ब्लू नीला रंग पेय पदार्थों में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है। निर्धारित मात्रा में इसे सुरक्षित माना जाता है।
 
ब्रिलियंट ब्लू  की अधिकता से गांठे, आंतों में घाव अस्थमा व अतिसंवेदनशीलता तरह के  शारीरिक नुकसान हो सकते है। वही कुछ विशेषज्ञों ने चूहों पर किये शोध के बाद इसको कैंसर कारक भी माना है। खाद्य उत्पादों में खाद्य  कृत्रिम खाद्य रंजक हमेशा संदेह के दायरे में रहे है। वैश्विक व्यापार मंडलो की दखल और स्थिर खाद्य प्राकृतिक रंजको  के अभाव में कृत्रिम रंजक हमारे जीवन बदरंग किये हुये  है।
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